. तो कोई राह नहीं मिलती ، यदि हम निर्णय भी कर लेते है तो पैर उठने के लिये कोई दिशा नहीं सूझती ، हमें कोई सही मार्ग नहीं मिल पाता। क्योंकि सत्य इतना गहन है ، इतना सूक्ष्म है कि हम आशा करना ही छोड़ देते हैं ، हम हार मान जाते हैं ، कि उसे जीवन में उतारा जा सकेगा। फिर हम अपने आपको धोखा देने के लिये हम चर्चा करके मन को समझा लेते हैं।
इसकी चर्चा हम सदियों तक करते रहते है ، क्योंकि चर्चा करने का अर्थ होता है कि हम कुछ शब्द जान लें ، कुछ सिद्धांत जान लें। बुद्धि भर जायेगी शब्दों से ، सिद्धांतों से ، हृदय खाली रह जायेगा और भरी बुद्धि और खाली हृदय जितनी खतरनाक स्थिति है ، उतनी कोई और स्थिति खतरनाक नहीं है ، क्योंकि भरी बुद्धि से धोखा होता है कि पा लिया मैंने ، जब कि मिला कुछ भी नहीं होता। भरी बुद्धि से लगता है भर गया मैं ، जब कि भीतर सब रिक्त ، कोरा ، दीन और दरिद्र होता है। बुद्धि से जितना लोग भ्रमित होते हैं، उतने लोग अज्ञान से भ्रमित नहीं होते।
इसके विपरित जो व्यक्ति सत्य की खोज व ज्ञान अर्जित करने की खोज में पूरे निष्ठ भाव से लग जाता है उस व्यक्ति की आत्मा को किसी रूपान्तरण से की जरूरत नहीं है। उस व्यक्ति को बदलाहट आवश्यक नहीं है- वह व्यक्ति जैसा था वैसा ही रहे ، ज्ञान इकट्ठा हो जायेगा। लेकिन अध्यात्म का क्षेत्र बिलकुल ही भिन्न है ، वहां ज्ञान के पहले रूपान्तरण चाहिये ، वहां आदमी बदले नहीं तो समझ ही नहीं पायेगा ، बदले तो ही समझ पायेगा। सत्य को समझने के लिये ، उसके ज्ञान को पाने के लिये व्यक्ति को अपने नींद से उठना पड़ता तो चेतना प्रवेश करती है व्यक्ति संसार की नींद से जग जाता है ، तो संन्यास फलित होता है संन्यास का अर्थ इतना ही है कि कोई व्यक्ति अब संसार को निद्रा के भांति चलाने को तैयार नहीं है ، अब वह जागकर जीना चाहता है। से सत्य जूझना खतरा है ، क्योंकि सत्य आपको वहीं नहीं छोड़ेगा जो आप हैं ، वह आपको बदलेगा ، तोड़ेगा ، मिटायेगा ، नया करेगा ، नया जन्म देगा और इससे हमें पीड़ा का अनुभव होगा क्योंकि यही हमें नूतन जन्म देगा ، नूतन व्यक्तित्व प्रदान करेगा। हम सभी चाहते हैं जीवन में आनन्द हो، लेकिन बिना पीड़ा के चाहते हैं، इसलिये आनन्द कभी फलित नहीं होता، हम उस आनन्द की प्राप्ति के लिये कीमत चुकाने को भी तैयार नहीं क्योंकि हम पीड़ा से बचना चाहते है।
यह कभी नहीं हो सकता की व्यक्ति अपने नये जीवन को बिना पीड़ा के पा ले। यह नहीं हो सकता ، इसका कारण है कि हम जो भी अब तक हैं तोड़ना पड़ता है ، उसे मिटाना पड़ता है ، उसे हटाना पड़ता है- नये लिये जगह बनाने को। . है और समाप्त करता है उसी मात्रा में नये जीवन का आविर्भाव होता है।
यह विद्या जिसमें हम अपने आपको मिटाकर، समाप्त कर नया जन्म लेते हैं। यह कोई सरल क्रिया नहीं है। यह क्रिया निरन्तर अथक प्रयास करने पर भी सफल नहीं हो पाती। इस नये जन्म की क्रिया को सम्पन्न करने के लिये हमें अपने गुरू की आवश्यकता होती है। . सकें। गुरू के सानिध्य में ही हम रूपान्तरण की क्रिया को भली भांति सीख सकते हैं क्योंकि उनसे हमें सही मार्ग ، सही दिशा मिलेगी ، जिससे हमारा जीवन आनन्दमय बन सकता है। अर्थात हमे इस पथ पर अग्रसर होने के लिये गुरू के साथ की आवश्यकता है।
गुरू से सीखना नहीं पड़ता، गुरू के साथ होना काफी है। पर सीखना सरल है और साथ होना थोड़ा मुश्किल ، क्योंकि सीखने में तो हम बहुत दूर खड़े होकर भी सीख लेते हैं ، निकट आने की कोई जरूरत नहीं होती। परन्तु साथ होने के लिये तो बहुत निकटता चाहिये ، एक आंतरिकता चाहिये- एक भरोसा ، एक गहरी श्रद्धा ، एक प्रेम ، एक जुड़ाव ، एक पागलपन किसी अपने भी ज्यादा अपने निकट मानने ऐसी आंतरिकता प्राप्त होने पर ही गुरू आपके जीवन को रूपान्तरण कर सकते हैं।
. पर चलना पड़ता है ، जिस पर उसे चलना नहीं चाहिये था और वे ऐसा इसलिये करते हैं कि वे अपने शिष्य उस रास्ते पर चला पायें जिस रास्ते पर वह अकेले चलने से घबरा रहा हो ، भयभीत हो। गुरू स्वयं को भी उस स्थिति से सामना करते हैं जिस स्थिति से शिष्य को सामना करना पड़ता है।
गुरू अपने शिष्य के लिये ये सब इसीलिये करते है क्योंकि जागे हुये को अगर दूसरे को तो तो खड़ा जाना होता दूसरा खड़ा है में ، उन्हीं लोगों के निकट जो भटक रहे हैं का हाथ، हाथ में लेकर। कई बार तो गुरू को उस यात्र पर भी थोड़ी दूर तक शिष्य के साथ जाना पड़ता है ، जहां मलिनता ، नर्क समान स्थितिया हों। क्योंकि गुरू हाथ पकड़कर शिष्य के साथ थोड़ी दूर चलता है، तो उसमें इतना भरोसा पैदा हो जाता है कि कल अगर गुरू शिष्य को अपने रास्ते पर लेकर चले तो वह गुरू के साथ चलता जाये।
अतः जीवन के सत्य को जानने के लिये ، उसे समझने के लिये हमें अपने जीवन को रूपान्तरण करना ही पड़ेगा और में बहुत-सी मुश्किलें है ، पीड़ा हैं जो कि केवल सद्गुरूदेव के माध्यम से ही संभव है। इसलिये शिष्य को हमेशा अपने गुरू के लिये समर्पण होना चाहिये क्योंकि जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाले हमारे गुरू ही होते है।
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