गुरू द्वारा 'जन्म' देना अत्यन्त पीड़ादायक घटना कही गई है ، क्योंकि 'जन्म' देने से पूर्व वे 'मृत्यु' देते हैं ، व्यक्ति की पूर्व भावनाओं को उसके पूर्वाग्रहों पूर्वाग्रह तो प्रत्येक व्यक्ति के साथ चलते ही रहते हैं। यह पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण भी हो सकता है और इस जन्म में सुनी-सुनाई ، रटी-रटाई समाज की बद्ध धारणाओं के फलस्वरूप भी। ، क्योंकि समाहित तो वे तब हो सकेंगे जब हृदय किसी पूर्वाग्रह से रिक्त होगा। जब तक वहां किसी और की मूर्ती बिठा रखी होगी ، उसे छोड़ना ही न चाह रहे होंगे ، तो वे समाहित होंगे भी कहां؟
यह सत्य है ، कि प्रत्येक जीव को उसकी भावनाओं के अनुरूप प्रारम्भ में वैसा ही स्वरूप दिखाते हैं ، क्योंकि मानव देह में प्रस्तुत होते निखिल ब्रह्माण्ड की ही एक सजीव प्रस्तुति जो होते हैं। . होते، न उन मेघों से आकाश का कोई परिचय होता है। आकाश की अपनी शुभ्र नीलिमा होती है वही उसकी वास्तविक अभिव्यक्ति، उसका परिचय होता है और सही अर्थों में गुरू का तात्पर्य एक शुभ्र स्वच्छ आकाश ही होता है। यह अनायास नहीं है ، कि इसी कारणवश गुरू की अभ्यर्थना 'अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं ، तत्पदं दर्शित येन तस्मै श्री गुरवे नमः' के रूप में की गई है।
. भक्ति तो एक भय है، भक्ति तो एक स्वार्थ पोषण का यंत्र है। यूं यथार्थ में होते ही कितने भक्त हैं ، जो भक्ति मार्ग को श्रेयस्कर घोषित किया जा सके؟ . और उनकी मान्यता पर जरा सी चोट पहुँची नहीं ، कि वे तड़प उठते हैं ، उनके दम्भ का विष छलक कर बाहर आ जाता है। जो इस देश के इतिहास से परिचित होंगे ، वे जानते होंगे ، कि कैसे इसी देश में ، इसी सहिष्णु कहे जाने वाले देश में वैष्णवों व शैवों के मध्य केवल तर्कों का आदान-प्रदान ही नहीं ، युद्ध तक हुआ है।
. करता है، क्योंकि विश्लेषण की प्रक्रिया से संयुक्त होना त्रसदायक है। . में कुछ नवीन प्राप्त करने निकल पड़ा है ، तो वहीं दूसरी ओर प्रतिपल उसे उस अज्ञात की दूरी कचोटती है ، जिसका वह गुरू से सम्पर्क में आने के बाद प्रथम क्षणों में साक्षात कर आगे बढ़ा होता है-
इसके उपरान्त भी कुछ साधकों को अपने पूर्व जन्म के संस्कारों ، प्रवाहों चैतन्यता और जीवन में कुछ नूतन घटित करने के आग्रह के कारण सदैव से यही मार्ग रूचिकर लगा है और ऐसे ही व्यक्ति विभूति बने हैं। यूं तो अनेक भक्तों ने भी अपना जीवन न्यौछावर किया है ، किन्तु उनका सम्पूर्ण चिन्तन एकांगी रहा है। . हेतु बन सके، गुरूत्व से युक्त हो सके। ؟ गुरू का तो आगमन ही होता है अनेक के लिये और यही उसके शिष्य का भी लक्ष्य होना चाहिये। अपनी बद्ध धारणाओं से मुक्त होकर गुरू साहचर्य को इस प्रकार ग्रहण करना भी एक प्रकार से गुरू साधना ही है।
चेतना का प्रवाह गंगा की भांति कभी रूकता नहीं है और अन्त में स्वयं को एक ऐसी विशालता में लुप्त पाता है ، जिसमें किसी देवी-देवता का (अथवा स्वयं उसका) कोई स्वरूप नहीं रह जाता। यही वास्तविक रूप में गुरू परिचय की स्थिति होती है और यही ब्रह्मत्व की भी स्थिति होती है। ऐसे गुरू रूपी समुद्र में प्रतिक्षण अनेक दिशाओं से आती ज्ञान की धाराये कभी प्रवाह को शुष्क नहीं होने देती हैं। गुरू से अन्त में 'मिलन' नहीं होता है ، गुरू तो प्रथम दिवस से ही साथ चल रहे होते हैं। अन्त तो सम्पूर्णता में होता है، अनेकता के सम्मिलन स्थल में होता है। आवश्यक केवल यह रह जाता है، कि शिष्य प्रतिक्षण गतिशील बना रहे। ! विश्लेषण की क्रिया या इन्हीं सब क्रियाओं का संयुक्त नाम ही तो होती है।
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