शिष्य को चाहिये कि वह जब भी अवकाश मिले ، तो गुरू से मिलकर मार्गदर्शन प्राप्त करें।
व्यवस्था और कार्य की जटिलता को धयान में रखते हुये गुरू कई बार किसी कार्य विशेष की जिम्मेवारी कुछ व्यक्तियों को सौंप देते हैं ، परन्तु इससे अन्य शिष्यों को कभी भी अपने आपको छोटा अथवा हीन नहीं समझना चाहिये। गुरूदेव तो समान रूप से अपने प्रत्येक शिष्य में स्थापित होते हैं। क्या मां अपने बड़े पुत्र को अधिक प्यार करती है ، और नन्हें शिशु को नहीं؟ सच्चाई तो ये है कि माता को अपने नन्हें शिशु की ओर भी अधिाक धयान देना पड़ता है ، क्योंकि वह स्वयं अपना धयान नही रख पाता है। गुरूदेव का प्यार भी सभी के लिये समान ही होता है।
शिष्य के लिये गुरू ही सर्वस्व होता है। यदि किसी व्यक्ति की मित्रता राजा से हो जाये ، तो उसे किसी छोटे-मोटे अधिाकारी की सिफ़ारिश की क्या आवश्यकता है। इसलिये श्रेष्ठ शिष्य वह है जो अपने मन के तारो को गुरू से ही जोड़ता है।
शिष्य यदि सच्चे हृदय से पुकार करे، तो ऐसा होता ही नहीं कि उसका स्वर गुरूदेव तक न पहुंचे। उसकी आवाज गुरू तक पहुंचती ही है، इसमें कभी सन्देह नहीं करना चाहिये।
शिष्य को चाहिये، कि वह जब भी गुरू शब्द का उच्चारण करें، तो श्रद्धा से उच्चारण करें।
शिष्य वह है، जो समय के मूल्य को पहचाने और जीवन में निरन्तर साधानारत बना रहे।
गुरू चरणों के अतिरिक्त शिष्य के लिये कोई तीर्थ नहीं होता، उसी भाव से वह गुरू चरणोदक को अमृत समझकर पान करता है।
गुरू चरणों में उपस्थित होकर विनम्र भाव से शरणागत होना ही शिष्यता है ، क्योंकि विनम्र हृदय में ही ज्ञान का संचार होता है।
يجب أن يتأمل التلميذ باستمرار في معبود المعلم وأن يردد تعويذة المعلم بشكل منتظم.
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