؟ किन्तु इन्हीं सब प्रपंचो के मध्य कहीं न कहीं वे साधुजन भी छिपे हैं ، जिन्होंने अपने निश्छल मन से जो समझा या अनुभूत किया ، उसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत कर दिया तथा जन-मानस में अमर हो गये। ऐसा करने के पीछे कदाचित उनका भाव रहा हो ، कि किसी दर्शन की प्रस्तुति करनी है अथवा न भी रहा हो। मूलतः विचार ही तो बाद में दर्शन का रूप धारण कर लेते हैं।
वस्तुतः जैसा कि भगवतपाद् आदिशंकराचार्य ने अपनी अनुपमेय कृति 'विवेक चूड़ामणि' में कहा हैं-
चिन्ताशून्यमदैन्यभैक्षमशनं पानं सरिद्वारिषु स्वातन्त्रयेण निरंकुशा स्थितिरभीर्निद्राश्मशाने वने।
بدون غسل الملابس والتجفيف وما إلى ذلك ، فإن الاتجاهات والمباني والأسرة والأرض والحركات والشركات ونهايات الشوارع ومسرحية العارفين موجودة في البراهمان الأعلى.
अर्थात् '' चिंता एवं दीनता से रहित भिक्षा का अन्न ही मुक्त पुरूषों का भोजन एवं नदियों का जल ही पेय होता है। निरंकुश एवं स्वतंत्र ऐसे व्यक्तियों को कोई भी भय व्याप्त नहीं होता। वन अथवा श्मशान में भी वे सुखपूर्वक निद्रा ले सकते हैं।
धोने-सुखाने की क्रियाओं से रहित दिशा ही उनके वस्त्र होते हैं، उनका आवागमन वेदान्त विधियों में ही हुआ करता है और परब्रह्म में ही उनकी क्रीड़ा होती है।
—ठीक यही स्थिति एक विद्वान पुरूष की होती है अथवा होनी चाहिये। لا شيء यूं भी जो मुक्त हो गया ، जिसने संसार को एक बार एक अलग दृष्टि से निहार लिया ، उसे स्पृहा रह भी जायेगी तो किस वस्तु؟ फिर भी मानव की मूल चेतना यही रहती है ، कि सदैव गतिशील एवं क्रियाशील रहे।
؟ और तब फिर वह केवल ब्रह्म का निरूपण विविध रूपों से करने का आग्रही मात्र रह जाता है। तब वह उसी एक परमतत्व को भी शिव के रूप में، कभी राम के रूप में और कभी-कभी तो शक्ति के रूप में वर्णित करता है। केवल यहीं तक ही नहीं वरन् तब तो जीवन के विविध भाव، जीवन का हास्य، जीवन का प्रेम، जीवन का लास्य، सब कुछ उसके लिये उसी परब्रह्म की क्रीड़ा मात्र रह जाता है और वह उन्हें वर्णित करता जाता है।
तब उनके लिये मीरा ، कबीर या सूर किसी शोध के विषय नहीं रह जाते ، अपितु वह फिर कभी स्वयं मीरा बनकर मीरा को समझना चाहता है ، तो कबीर बनकर कबीर को। यह उसकी एक मात्र विलास शेष रह जाता है और जैसा कि स्वामी विवेकानन्द ने कहा था ، कि 'मैं ही आद्य शंकराचार्य हूँ ، मैं ही बुद्ध हूँ ، मैं ही कृष्ण हूँ और मैं ही भी हूँ– " व्यक्ति के चित्त पर हावी होती हुई उसे ऐसा व्यक्तित्व बना देती है، जो देश-काल के नियमों से परे एक सर्वग्राही व्यक्तित्व होता है।
إنه شاهد كل روح إلهية وتسمى هذه الشخصية Sadguru في الكتب المقدسة الهندية.
- और जब ज्ञान विलास बन जाता है जब वह तर्क-वितर्क की सीमाओं को लांघने को तत्पर हो जाता है ، तभी एक नये संगीत का जन्म होता है। यहाँ पुनः स्वामी विवेकानन्द का ही कथन उद्धृत है ، कि आज तक धर्म के क्षेत्र में किसी भी व्यक्तित्व ने किसी नये तत्व की खोज नहीं की है ، अपितु व्याख्या भर ही की है। धर्म के मूल तत्व यथा करूणा، प्रेम इत्यादी तो वही रहे हैं और वही रहेंगे।
काल विशेष के अनुसार उनकी व्याख्या करना ही सद्गुरू का धर्म होता है। जब यह व्याख्या सद्गुरू के सानिध्य में होती है तब यह एक नीरस या उबाऊ यात्र नहीं ، अपितु आनन्द की ، उल्लास की ، चेतना की ऊर्ध्वगामिता की यात्र बन जाती है ، जिस प्रकार देवगंगा का प्रवाह अधोगामी न होकर ऊर्ध्वगामी होता है।
. संहार कर देता है और अंततः मौन में जाकर सम्पूर्ण हो जाता है।
في الواقع ، حتى الأحمق يمكن أن يكون صامتًا ، تمامًا مثل Kalidas الذي أظهر المعرفة بالعلامات من خلال التزام الصمت.
लेकिन मेरा तात्पर्य उस ज्ञान से नहीं है। ज्ञान की पूर्णता से है ، जो मौन में आता हैं उसमें तृप्ति होती है ، उससे व्यक्ति के चेहरे पर आभा आती प्रेम को समझता है और जब वह प्रेम को समझ लेता तब वह जगत का स्वरूप समझ समझ है तब जगत प्रति उसका कोई राग-द्वेष या दुराग्रह नहीं रह जाता है। वह संसार को यूं देखता है ज्यों कठपुतलियों का कोई खेल चल रहा हो और इस स्थिति को प्राप्त लेने लेने के ही यथार्थः करूणा आगमन आगमन होता ، जो प्रत्येक धर्म और दर्शन में जीवन का मूल कही गई है। لا شيء समाज में प्रत्येक व्यक्ति तो ज्ञानी नहीं हो सकता और ऐसा किसी अहंमन्यता की बात नहीं अपितु सत्य रहा हूँ तब उपाय रह जाता؟ . कि वह व्यक्ति की ऐकान्तिक स्थिति होती है। आत्म-कल्याण की बात अपने आप में श्रेष्ठ धारणा है ، किन्तु गुरू का आग्रह केवल यही नहीं होता कि शिष्य-कल्याण तक ही सीमित रहे ، वह इसके आगे अपने शिष्य को बढ़ाना चाहते हैं।
هناك حاجة للمعرفة أيضًا لأن تقييد ارتباط المعلم لا يمكن إدراكه إلا من خلال عيون المعرفة.
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