शरीर को सताना नहीं ، गलाना नहीं ، वरन सोई हुई चेतना को जगाना ، साक्षी को जगाना है। मेरे लिये संन्यास का मौलिक अर्थ है साक्षीभाव और साक्षीभाव के लिये संसार सबसे सुविधापूर्ण अवसर है और इसीलिये तो परमात्मा ने तुम्हें संसार दिया। जिस तरह भगवान ब्रह्मा ، विष्णु एवं महेश के बिना यह संसार अपनी गति को प्राप्त नहीं कर सकता ، ठीक उसी प्रकार ये देवता भी महासरस्वती ، महालक्ष्मी एवं महाकाली (पार्वती) के बिना अपनी गति को प्राप्त नहीं हो सकते। इसी कारण से जीवन में इन महादेवियों की उतनी ही आवश्यकता है जितनी कि त्रिदेव की।
لا شيء . जीवन में अपने लिये केवल कठिन परिस्थितियों का निर्माण हीं करेंगे और अपने जीवन को श्रेष्ठता तक नहीं ले जा पायेंगे।
सद्गुरू और ईश्वर का पूर्ण वर्चस्व रूपी आशीर्वाद साधक को तब प्राप्त होता है जब वह अपने गुरू के सानिध्य में महासरस्वती ، महाकाली ، महालक्ष्मी के त्रिगुणात्मक पिण्ड स्वरूप में पूर्णरूपेण शक्ति स्वरूपा को आत्मसात कर सके। ऐसा कर के ही वे अपने जीवन में पूर्ण संतुलन बना सकने में सक्षम हो सकते है। गुरू की तो हमेशा यही इच्छा होती है कि उसका शिष्य सभी दृष्टियों से परिपूर्ण और पूर्ण सफलता युक्त बन सके।
साधक अपने जीवन में सुस्थिति चाहता है। इसी हेतु पूजा-अर्चना ، ध्यान-साधना ، स्नान-दान ، तपयुक्त धार्मिक यात्रयें करता है और उसका लाभ साधक को जीवन में मिलता ही है।जब शक्ति के 108 स्वरूपों का आवाहन कर उन्हें चैतन्य किया जाता है तो जीवन में पूर्ण नूतनता का विस्तार होता है।
साधक व्याप्त गहनद अंधकार को समाप्त कर प्रकाश की ओर अग्रसर होता है जिससे जीवन में कुछ नया घटित हो जाना ، जो दूसरों से अलग हो ، ऊर्जा और शक्ति से आप्लावित हो ، संभव हो पाता है। ऐसी 'शक्ति' की प्राप्ति गतिशील साधक को ही होती है। जब साधक स्वयं यह कह उठता है- 'मुझमें वह क्षमता، वह सामर्थ्य، वह शक्ति है، जिसके बल पर मैं अपने जीवन की अपूर्णताओं को सद्गुरूदेव की कृपा से पूर्णतामय स्थितियों में बदल सकता हूँ'।
. वास्तव में व्यक्ति में स्वयं इतना सामर्थ्य नहीं होता कि वह अपने जीवन में पंचभूता स्थितियों धर्म ، अर्थ ، काम ، मोक्ष और प्रेम को पूर्णता से आत्मसात कर सके।
इन्ही पंचभूत चेतना को प्राप्त करने के लिये ज्ञान ، तप और ऊर्जा के साथ-साथ सही मार्ग दर्शन की आवश्यकता है और यह बिना किसी शिव रूपी के द्वारा या शक्ति स्वरूप के बिना संभव नहीं है। . का भाव होना आवश्यक है। यह तो पूर्ण गुरू कृपा ही होती है ، जब साधक या शिष्य अपने पाप पाशों से मुक्त होता हुआ उस ब्रह्म में एकाकार हो जाता है।
यूं तो करोंड़ों लोग रोज जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं ، पर ऐसा जीवन तुम्हारे लिये मैंने नहीं सोचा है। तुम्हें इसी जीवन में उन ऊंचाइयों पर पहुँचना है जहां पर पहुँचना ही जीवन की सार्थकता कही जा सकती है। जिस दिन ऐसा होगा، उसी दिन तुम्हारा और मेरा मिलना सार्थक हो सकेगा।
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