यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहते हैं، बहुत ही पवित्र माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पहली जनेऊ के निर्माणकर्ता प्रजापति हैं। हर जनेऊ में तीन सूत्र और प्रत्येक सूत्र में नौ तन्तु होते हैं। ये तीन सूत्र बहुत सी वस्तुओं के प्रतीक माने जाते हैं-
तीन सूत्रों के नौ तन्तुओं में नौ देवता रहते हैं- ओंकार ، अग्नि ، अनन्त ، चन्द्र ، पितृगण ، प्रजापति ، वायु ، सूर्य और सर्व देवता। जनेऊ धारण करने का यह अभिप्राय है कि व्यक्ति अपने जीवन में अध्यात्म ، तेजस्विता ، धैर्य ، नम्रता ، स्नेह ، दया ، परोपकार ، स्वच्छता और बल को सदैव धारण करें।
प्राचीन काल में उपनयन संस्कार के लिए शिष्य को गुरू के पास भेजा जाता था ताकि वह गुरू से ज्ञानार्जन कर सके। लेकिन आज के समय में एक सही समय ، उचित मुहूर्त निर्धारित किया जाता है ، तब बालक को उपनयन संस्कार ग्रहण करवाया जाता है। वर्तमान समय में उपनयन संस्कार एक विवाह समारोह की तरह धूम-धाम से मनाया जाता है। इस संस्कार से पहले गणपति ، सरस्वती ، लक्ष्मी ، धृति ، पुष्टि आदि का आह्नान और स्तुति होती है। वर्तमान में ब्राह्मण या पूजन के लिए आये पण्डित जी द्वारा यज्ञ सम्पन्न किया जाता है ، बालक का मुंडन किया जाता है ، घर के सभी बडे़ सदस्यों के आशीर्वाद के साथ उसे 3 सूत्र का जनेऊ धारण कराया जाता है। जनेऊ पहनाने के बाद बालक के हाथ में एक दण्ड (डण्डा) पकड़ाया जाता है। दण्ड के और बहुत उपयोग हैं ही، लेकिन दण्ड यात्र का प्रतीक भी है। हाथ में दण्ड देने का अर्थ है कि यह बालक ज्ञान के लम्बे और कठिन मार्ग को पार करके अपने लक्ष्य को सुरक्षित रूप में पा सके। इस दौरान बालक ब्राह्मण की वेशभूषा धारण किये रहता है। वस्त्र ، जनेऊ और दण्ड धारण करा देने के बाद पण्डित जी उस बालक को सावित्री उपदेश (गायत्री मंत्र) देते हैं।
क्योंकि गायत्री मंत्र बुद्धि की प्रेरणा का मंत्र है। ब्राह्मण बालक को सभी मंत्र का ज्ञान देते हैं ، दीक्षा का महत्व बताते हैं। इस उपदेश के पश्चात् बालक ब्रह्मचारी कहलाता है। पुराणों के अनुसार यह उपदेश मिलने पर ही बालक का दूसरा जन्म सिद्ध होता है जिसमें सावित्री (गायत्री) उसकी माता होती हैं व गुरू उसके पिता।
यह सारे विधि-विधान हो जाने पर बालक अपने परिजनों के सामने भिक्षा लेने के लिए भेजा जाता है। प्राचीन काल में यह क्रिया सूचित करती थी कि भिक्षा माँगने से अहंकार नष्ट होता है ، विनम्रता आती है और कठिन-से-कठिन परिस्थिति सहने का स्वभाव बनता है।
उपनयन संस्कार के बाद से जातक को हमेशा जनेऊ धारण करना होता है और इसे धारण करने के बाद कुछ नियमों का पालन भी सदा करना होता है। जिसकी जानकारी उसके गुरू या पूजन के लिए आये ब्राह्मण जन उसे देते हैं। इनका पालन करना जातक का परम कर्त्तव्य होना चाहिये। जब जातक गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता है यानि कि उचित आयु हो जाने पर जब उसका विवाह होता है तो पश्चात् उसे छः का का जनेऊ धारण करना होता है। उपनयन संस्कार का उद्देश्य बालक को अनुशासन सीखाना और आध्यात्मिक जीवन की ओर अग्रसर करना भी होता है।
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