जब से यह सब सोचना विचारना प्रारम्भ किया है ، तभी से 'ध्यान' की उत्पत्ति हुई है ، क्योंकि ध्यान सम्पूर्ण मानव जाति का इतिहास है ध्यान एक रास है ، महारास है ، महानृत्य जीवन की एक उमंग ، जीवन का उल्लास ، जीवन का सौभाग्य और सही अर्थों में कहा जाये तो जीवन की पूर्णता है। . कोई चेतना नहीं रह जाती।
जिस क्षण हम जन्म लेते हैं، उसी क्षण से सिर्फ एक ही जीवन हमारे सामने होता है। ؟ इस जीवन का मर्म ، चेतना क्या है؟ इसको समझने के लिए कोई शास्त्र، वेद، उपनिषद्، पुराण नहीं बना है، कोई विश्वविद्यालय नहीं बना، कोई ऋषिकुल नहीं बना गुरूकुल में इसकी शिक्षा नहीं जा सकती शरीर का नहीं है यह शरीर का विषय वस्तु नहीं है— यह तो आन्तरिक उल्लास है।
. का कोई पारस्परिक सम्बन्ध नहीं है।
प्रत्येक मनुष्य के शरीर में रश्मियां निकलती हैं और वे रश्मियां दूसरे मनुष्य के शरीर को स्पर्श करती हैं। इस रश्मियों के आदान-प्रदान से सुख-दुःख ، हानि-लाभ ، जीवन-मरण ، प्रेम-घृणा ، यश-अपयश सब की उत्पत्ति होती है। मैं किसी से प्रेम करता हूं، यह केवल एक रश्मि، पहले मनुष्य के शरीर से दूसरे मनुष्य के शरीर तक पहुँच कर इस भाव की उत्पत्ति करती है। इसका मन से कोई सम्बन्ध नहीं होता ، क्योंकि शरीर का शरीर से जो सम्बन्ध स्थापित होता है ، वह केवल विषय-वासनाओं से सम्बन्धित है- काम ، क्रोध लोभ और अहं से सम्बन्धित है। यह वैसा ही है जैसे किसी तालाब के ऊपरी तल पर हम लहरें देख रहें हों। वास्तविकता जानने के लिए जब तक उस सरोवर की गहराई में कूदेंगे नहीं، उसके अन्दर प्रवेश नहीं करेंगे، तब तक उसकी गहराई का अन्दाजा भी नहीं लगा सकेंगे के रहस्य लोकों को भी नहीं देख सकेंगे। समुद्र के गर्भ में जो मोती हैं ، उनको भी नहीं परख सकेंगे रूपी समुद्र में मोतियों की परख के लिए शरीर के अन्दर पहुँचना आवश्यक है ، शरीर के अन्दर उतरना आवश्यक है—
. . ، जहां सब कुछ समाप्त हो जाना है।
जब सब कुछ समाप्त हो जाना है ، तब एकत्र किसलिये करें؟ यह एकत्र करने की क्रिया क्यों है؟ क्यों एकत्र किया जाता है؟ सही अर्थो में मानव भ्रम में है ، एक भूल-भूलैया में है ، क्योंकि मानव वह सब कुछ एकत्र कर रहा-जिसकी उसे आवश्यकता नहीं है ، जिससे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। वह जो धन ، पुत्र ، पत्नी ، बन्धु-बांधव एकत्र कर रहा है उसकी उसे जरूरत नहीं है ، क्योंकि यह सब उसके साथ नहीं जा सकता। ऐसा करके वह जो असल में चीज प्राप्त करने की आवश्यकता है- उसे खो बैठता है और जो नहीं एकत्र करने की आवश्यकता है- उसे एकत्र करते रहता है। व्यर्थ के कचरे को एकत्र कर रहा मोतियों को छोड़ रहा असल की पहचान अन्दर उतारने के द्वारा ही संभव हो के अन्दर आप को शरीर से परे हटा कर। '' आज मैं 'ध्यान' की उन गोपनीय विधियों को ، उन गोपनीय रहस्यों को ही स्पष्ट कर रहा हूं ، जो 'जीवन के हीरे' हैं जो 'जीवन की पूंजी' है ، जो 'मनुष्य की वास्तविकता' है ، जिसके माध्यम से मनुष्य ، मनुष्य कहलाता है। '' मनुष्य को शब्द से जोड़ा गया 'मन' है— मन शब्द से मनुष्य की उत्पत्ति हुई है ، शरीर शब्द से मनुष्य की उत्पत्ति नहीं हुई हैं इसका तात्पर्य यही हुआ 'शरीरस्य' कहना चाहिये 'मनुष्य' नहीं कहना चाहिये और मनुष्य कहते हैं तो हमको मन को पहचानना आवश्यक है।
जब तक हम मन को नहीं पहचानेंगे तब तक हम मनुष्य कहलाने के काबिल नहीं है ، जैसे- किसी को गाय ، भैंस ، शेर ، सियार कह सकते हैं ، ठीक उसी प्रकार मनुष्य कह सकते हैं ، क्योंकि जब तक हम मन और उस मन की मूल धारणा को नहीं समझेंगे ، चिन्तन नहीं करेंगे तो पशु में और हममें कोई अन्तर रह ही नहीं सकता।
मनुष्य तब मनुष्य बनता है، जब मन से किसी को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। इसीलिये इसके पूर्व हम जो कुछ कार्य करते हैं، वह ऊपरी हिसाब से करते हैं और कहते हैं यह कि- 'मैं मन से कर रहा हूं।' प्रेमी यह कह रहा है- 'मन से प्यार कर रहा हूं।' किसी से प्यार करते समय वह कहता है- 'मन से तुम्हें चाहता हूं।' . के माध्यम से तुम्हें प्यार करता हूं स्मरण के माध्यम हूं मन से मैं कर रहा हूं! और मन उसके नियन्त्रण में नहीं है! ऐसा व्यक्ति सही अर्थों मे मनुष्य नहीं बन सकता।
इस बात को समझने के लिए उन प्रश्नों का सहारा लेकर चलें، प्रश्नों के माध्यम से उत्तर दें जिससे कि यह गुढ़तम विषय सरलतम हो सके। . . फिर भी इसे एक चिन्तन की गहराई के माध्यम से ، एक विचार की आवश्यकता के माध्यम से इसे समझना सम्भव हो सकता है।
؟ शरीर और शरीर के नीचे भी एक ऐसी अवस्थिति है ، एक ऐसी चेतना है ، जिसको 'मन' कहा जाता है ، उस मन को पकड़ने के लिए शरीर को छोड़ना होगा ، इससे परे हटना होगा . और उस चेतना को समझने के लिए आवश्यक है- हम ध्यान को समझें।
अपने अन्दर उतर कर ، अपने जीवन को समझने के लिए ، शरीर की सीढ़ी बनाकर ، जब पूरी तरह ऐसा समझें कि समाप्त हो गया है 'द्रष्टा' मात्र बन जाते हैं ، जो कुछ मैं देख रहा हूं- बान्धव ، पुत्र ، मान ، यश ، प्रतिष्ठा- ये सब कुछ ठीक वैसा ही है ، जैसे- चित्रपट पर एक चित्र सा चल रहा है ، हम प्रेक्षा गृह में केवल एक टिकट लेकर बैठे हुए हों से। जब व्यक्ति में द्रष्टाभाव पैदा हो जायेगा، तटस्थ रूप से देखने का भाव पैदा हो जायेगा और देखते समय मन में प्रसन्नता का भाव होगा विषाद का दुःख में दुखी होने का भाव होगा ، न सुख में सुखी होने का भाव होगा जब ऐसी स्थिति में पांव रखेंगे، जब हम ऐसी स्थिति में आयेंगे، जब हम तटस्थ बनने की क्रिया का प्रारम्भ करेंगे، तब 'ध्यान' का 'पहला चरण' प्रारम्भ होगा।
ध्यान، कोई वस्तु नहीं है जो बाहर से अन्दर आरोपित की जा सके। ज्ञान के माध्यम से ، पुराणों के माध्यम से ، वेद मंत्रें के माध्यम से ध्यान हीं किया जा सकता ، क्योंकि ध्यान ऐसी चीज है ही नहीं कि बाहर से अन्दर की ओर उतर सके। ध्यान तो अन्दर से बहार आने की क्रिया है، अन्दर से उत्थित होने की क्रिया है से ऊपर उठने की है अन्दर तक पहुंचने हमें सीढि़यां बनानी पड़ती पड़ती है- द्रष्टज्ञ भाव की की। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- विदेह बनने की، जहां न हर्ष होता है، न विषाद होता है। सीढि़यां बनानी पड़ती हैं- मन की और उस मन के पास पहुंचने पर जो बिम्ब दिखाई देता है ، जो चेतना जाग्रत करता है ، जो विचार पैदा होता है ، उसे 'ध्यान' कहते हैं।
'ध्य' इति 'न' स 'ध्यान'— बाहर का कुछ भी ध्यान न हो ، बहार कुछ भी हो रहा हो ، हम समभाव से रहें ، हम तटस्थ होकर रहें ، उस स्थिति को हम' ध्यान 'कहते हैं।
आंख मूंद कर बैठे रहने को ध्यान नहीं कहते। आंख बंद कर लेने से ध्यान नहीं होता। हिमालय में जाकर बैठने से، समाधि लगाने से ध्यान नहीं होता। पातंजलि के योग दर्शन को पढ़कर ، समझकर और सीखकर भी ध्यान को नहीं सीखा जा सकता ، क्योंकि ध्यान सीखने की चीज है ही नहीं। ، ध्यान तो अनुभव करने की चीज है। ، ध्यान तो अन्दर उतरने की क्रिया को कहते हैं। जो अन्दर उतरने की क्रिया को जान लेता है ، जो मन के परे पहुँच जाता है ، उसे ध्यान कहते हैं। जहां ध्यान है، वहां और कोई चीज नहीं रह सकती، या तो ध्यान रह सकता है या बाहर की कोई चीज ही रह सकती है जब ध्यान रहेगा तो फिर पत्नी ، पति ، पुत्र ، बन्धु-बांधव ، कुछ नहीं रहेगा ، दूसरे अर्थो में वह खुद भी अपने आप में नहीं रहेगा ، शास्त्र का कोई ज्ञान ، चेतना ، होश नहीं रहेगा। उस स्थिति में पहुंचने की क्रिया को ध्यान कहते हैं। प्रश्न ध्यान निराकार का किया जा सकता है या साकार का؟
हमारे यहां मूलतः शब्द हैं- एक निराकार ، एक साकार— किसी ने राम को— किसी ने कृष्ण को ने ईसा को ने अन्य किसी को माना है। उनके सामने एक बिम्ब है ، एक मूर्ति है ، धनुष लिए हुए राम हैं ، मुरली बजाते हुए कृष्ण हैं ، सूली पर टंगे हुए ईसा हैं- इस प्रकार के चिन्तन करने की क्रिया को सगुण चिन्तन कहते हैं ، साकार की उपासना कहते हैं। कुछ ऐसे चिन्तक हुए हैं ، जिन्होंने सगुण और साकार की स्थिति से अपने चिन्तन को अलग हटा दिया है। वे बिल्कुल एक अलग स्थिति में खड़े हैं ، 'कबीर' ऐसी पंक्ति में अग्रणी हैं ، तो कहते हैं- ब्रह्म का कोई स्वरूप नहीं है ، वह अजन्मा है ، अविकार है ، अचिन्त्य है- लाली मेरे लाल की ، जित देखूं तित लाल ، लाली देखने में गई، मैं भी हाक गई लाल। उसमें क्या खास बात है ، उसे क्या कहूं ، उस को क्या आकार दूं ، उसका क्या रूप बताऊं- वह तो सर्वत्र व्याप्त है। . में अपने-आप को अवस्थित देखता है तो ، वैसा ही अनुभव करता है ، वैसी लाली जो दसो दिशाओं में होती है। जहां किसी प्रकार की मूर्ति नहीं है، किसी प्रकार का चित्र नहीं है، और किसी प्रकार का बिम्ब नहीं है- वह 'निराकार' है ، जिसका कोई आकार नहीं हैं।
ध्यान के लिए न निराकार की आवश्यकता है ، न साकार की आवश्यकता है आकार है ही नहीं वहीं ध्यान है। आकार तो हमने बनाया है، हमने राम को देखा नहीं है، पोथी में जो लिखा है उसके अनुसार चित्र बनाया और 'राम' की संज्ञा दे दी। हमने कृष्ण को देखा नहीं है، श्रीमद्भागवत में जो पढ़ा है، उसको एक आकार बनाकर 'कृष्ण' का नाम दे दिया- आकार के माध्यम से ध्यान की स्थिति नहीं हो सकती। . दिनों के अभ्यास के बाद वह कागज हटा दिया जाता है ، उसको कहा जाता है- अब तक तुमने पेंसिल से जो अभ्यास किया है ، उसको तुम्हें लिखना है और सफ़ेद कागज पर वह उसे लिख देता है।
मनुष्य की भी ऐसी ही स्थिति है ، जब वह ध्यान की ओर प्रवृत्त होता है तो ، उसे एक आकार दे दिया है निरन्तर देखते रहने के आकार को निरन्तर देखते रहने की जो क्रिया है ، वह सगुण क्रिया है। उसके आँखों में 'कृष्ण' बस जाता है ، उसके आँखों में राम बस जाता है ، उसकी आँखों में 'नानक' और 'ईसा' बस जाते हैं— और वह बिम्ब उसके सामने स्पष्ट हो जाता है। उसके आँखे बंद होती है ، तब भी अभ्यास वश वह बिम्ब ही उसके आँखों सामने आ जाता है हैं आँख बंद इष्ट मेरे सामने साकार मान बैठते हैं-मेरा ध्यान लग गया। . दिखाई देता है।
यह तो ठीक ऐसी बात हुई- जब कोई प्रेमी अपनी प्रेमिका से बात करता है ، वह निरन्तर उसके चित्र को निहारता रहता है ، अपनी जेब में लिए हुए घूमता रहता है ، वह चित्र उसकी आंखों के सामने घूमता रहता है वह आंख बंद करके देखता है तो प्रेमिका का बिम्ब उसकी आंखों के सामने साकार हो जाता बिम्ब स्पष्ट होने से हुआ कि वह प्रेमिका उसके सामने हो गई ، वह तो मात्र एक बिम्ब है ، वह अपने-आप में प्रेमिका नहीं बन सकती । बिम्ब प्रेमी नहीं बन सकता- वह तो एक दृश्य है जिसे हम खुली आंखों से देख रहे थे या बंद आंखों से देख रहे थे।
. तो चारों ओर लाली सी दिखाई देती-वह उसी को ध्यान समझ बैठता है सही अर्थों में न वह पहले वाला ध्यान है ، न यह ध्यान है। ध्यान न सगुण का किया जा सकता है ، न निर्गुण का किया जा सकता है। इन दोनों से परे हट कर जो अवस्थिति है ، उस अवस्थिति में पहुँचने की जो क्रिया है- वह ध्यान है। ध्यान तो बहुत आगे की स्थिति है ، इसीलिये यह आवश्यक नहीं कि आपके सामने कोई बिम्ब हो या यह कोई आवश्यक नहीं कि- आप हिन्दू हों ، मुस्लिम या सिख ، ईसाई हों। यह आवश्यक नहीं कि आप राम، कृष्ण को पूजते हों। बस आप मनुष्य हैं ، अतः अपने अन्दर उतर कर ، सुदूर गहराइयों में पहुँच सकते हैं और प्रत्येक मनुष्य पहुँच सकता है ، यदि वह बुद्धि से परे हट है तो ، क्योंकि-बुद्धि ही सगुण और निर्गुण में भेद कहती है। ، बुद्धि ही साकार और निराकार में भेद करती है، ये साकार है— ये निराकार है— और जहां बुद्धि है वहां साकार और निराकार दोनों है। छल-झूठ ، ढोंग और पाखण्ड भय है। इसीलिये ध्यान न साकार का किया जा सकता है ، न निराकार का किया जा सकता है।
سؤال: ध्यान का वास्तविक तात्पर्य क्या है किस प्रकार किया जा सकता है؟ . हों، जहां निरन्तर अन्दर उतरने की क्रिया होती रहती है، तब उस स्थिति में पहुँचने की क्रिया को 'ध्यान' कहते हैं।
जहां ऊपरी भाव समाप्त हो जाता है، वहां एक नया आलोक पैदा होता है। जब हम एक छोटे कमरे से आगे बढ़ते हैं तो، आगे उससे बड़ा तेज रोशनी युक्त मिलता मिलता हम उससे आगे बढ़ते हैं तो गहराई में से प्रकाश तक और प्रकाश प्रकाश स्तम्भ की स्थिति तक— निरन्तर पहुंचते रहते हैं और जब हम अन्तिम बिन्दु पर पहुंच जाते हैं ، जहां बाह्य सब कुछ शून्य हो जाता है अपने अस्तित्व का बोध भी समाप्त हो जाता है ، उसे ध्यान कहते हैं।
मनुष्य की सात अवस्थायें होती हैं ، जिसको कहा गया है- 1- ، 2- मध्यमा ، 3- पश्यन्ती ، 4- अतल ، 5- प्राण ، 6- निर्बीज ، 7-मनस इन सातों स्थितियों को प्राप्त करने के बाद हम जिस स्तर पर पहुंचते हैं، उसे 'ध्यान' कहते हैं। प्रथम अवस्था 'वैखरी' का तात्पर्य है- हम अपने देह में है। वैखरी का तात्पर्य है- मैं जो कुछ कर रहा हूं، मुझे ज्ञात है कि मैं क्या कर हूं؟ - मैं कौन हूं؟ - हिन्दू हूं؟ - या मुसलमान हूं؟ मैं जो कुछ कर रहा हूं वह ठीक कर रहा हूं या गलत कर रहा हूं؟ - इस बात का ज्ञान है कि ، ध्यान भी कोई चीज है ، मुझे इस बात का भी ज्ञान है कि मैं हिन्दू हूं या मुसलमान हूं।
यह अवस्था पशुओं में नहीं होती है، यह मनुष्यों में होती है। ऐसे कई पुरूष होते हैं जिनकी वैखरी अवस्था भी नहीं होती। जो पशुता और मनुष्यता में भेद समझते ही नहीं ، निरन्तर पशुता की ओर अग्रसर होते रहें हैं ، मगर जहां आदमी सोचने विचारने की क्रिया प्रारम्भ करता है जिस समय वह यह अहसास करने है ، यह विचार करने लगता है कि- 'शरीर . हट कर، अन्दर उतरने के लिए अपना पांव बढ़ाया है، एक कदम आगे बढ़ाया है।
उसने यह अहसास किया है कि- बाहरी दुनिया ، बाहरी सुख-दुख— इन सबसे अलग हटकर स्वयं के अन्दर जो अपने-आप में एक अपूर्व आनन्ददायक स्थिति है ، मुझे वहां तक पहुँचना है। इस स्थिति का भान होना ، अनुमान होना कि मुझे उस अवस्था तक पहुँचना है जो मनुष्यता की श्रेष्ठतम स्थिति है। जिस समय ऐसे विचार मन में उठेंगे ، तब उसे वैखरी अवस्था कहा जाता है ، क्योंकि उस समय वह- अपनी देह की अवस्था से परे हट कर ، अन्दर की अवस्था में पहुँचने की क्रिया करते हुए अपना कदम बढ़ाता है।
मैंने तुम्हे बताया कि، शरीर से निरन्तर विद्युत तरंगें प्रवाहित होती रहती हैं، उनसे जब दूसरे शरीर की तरंगें स्पर्श होती होती दूसरे शरीर की तंरगों के स्पर्श से हम मालूम कर लेते कि सामने वाला क्रोध कर रहा है या घृणा कर रहा है— प्रेम कर रहा है या हमे चाहता है— यह सब कुछ बाह्य तरंगों के आदान-प्रदान से ही ज्ञात मानसिक बीमारियां बाहरी तरंगों के आदान-प्रदान से ही होती हैं।
ये बाहरी शरीर की तरंगें हैं، ये बाहरी चीजों का अदान-प्रदान है। . से आनन्द की उपलब्धि संभव हैं बाह्य रूप से तो उसने सब कुछ करके देख लिया ، उसने मकान बनाया ، घर बसाया ، पत्नी लाया ، एक पत्नी ، दो पत्नी ، चार पत्नी ، आठ पत्नी ، दस औरतों से विवाह किया— पति बदले ، . ، जिसके माध्यम से ही आनन्द की अनुभूति हो सकती है। '
ये बाह्य सुख अपने आप मे क्षण मात्र हैं। जो आज है، वह कल नहीं हैं। आज धन है، कल धन बचा नहीं रह सकता। धन के माध्यम से नींद नहीं प्राप्त हो सकती। धन के माध्यम से निश्चिंतता प्राप्त नहीं की जा सकती— भागते रहने की प्रक्रिया से कुछ प्राप्त नहीं किया जा सकता। कोई अलग चीज है ، जिसके माध्यम से आनन्द की अनुभूति हो सकती है वे विचार उसके मानस में लहरें लगते हैं ، जब आती है ، दृढता जब मजबूती आने लगती है कि आनन्द प्राप्त करना ही है उसे उसे पता नहीं है कि आनन्द क्या चीज है؟ आनन्द कैसे प्राप्त होना है؟ इसे कहां से प्राप्त किया जा सकता है؟ मगर एक धारणा बन गई है، मजबूती आ गई، यह चिन्तन बना कि- जरूर कोई चीज है जिसके माध्यम से मैं आनन्द को प्राप्त कर सकता-इस मजबूती को 'मध्यमा अवस्था' कहा गया है।
तीसरी अवस्था 'पश्यन्ती अवस्था' है। पश्यन्ती देखते रहने की क्रिया को कहते हैं। हम देख रहें हैं ، मगर हम एक दूसरी आंख से देख रहें हैं ، एक दूसरे तरीके से देख रहें हैं ، भाव बदल गया है। हमारी धारणा और चिन्तन बदल गया है। ठीक ऐसा ही देखने का भाव हुआ، जैसे- टिकट लेकर हम सिनेमा हॉल में बैठें हैं।
सामने पर्दे पर किसी का पुत्र मर गया है— मन में कोई भाव नहीं उठ रहा है ، दुःख नहीं हो रहा है। कोई लड़की बहुत सुन्दर नाच रही है। मन में कोई बहुत बड़ा विकार या विचार उत्पन्न नहीं हो रहा है। बस केवल देख रहा है— देखते-देखते तीन घंटे बीत जाते हैं، और वह कुर्त्ता झटक कर बाहर आ जाता है। मगर तीन घंटो में वह तटस्थ होकर देख रहा है। उसमें इनवॉल्व नहीं हो रहा है। वह उस पर्दे पर जो कुछ दृश्य है ، उससे अपनी तादात्यमता नहीं जोड़ रहा है। . है، रूपये चले गये तब भी तटस्थ रूप से देखता रहता है। घर में लड़ाई-झगड़ा हो गया، तब भी वह तटस्थ भाव मे रहता है। उसको कोई गाली देता है، तब भी वह तटस्थ रहता है। उसकी कोई प्रशंसा करता है ، तब भी वह तटस्थ रहता है और यह तटस्थ रहने की क्रिया ، उसके जीवन में उतर जाती है तो ، वह 'पश्यन्ती अवस्था' प्राप्त कर लेता है। तब केवल द्रष्टा भाव रहता है، वह देखता रहता है- सभी रूपों में वह अपने-आप में स्थिर रहता है। न हर्ष होता है ، न विषाद होता है— मन में किसी प्रकार की कोई चिन्ता होती ही नहीं। वह केवल एक जगह खड़ा है और देखता रहता है। अपने-आपको उसमें लिप्त नहीं करता ، अपने-आपको उसमें जोड़ता नहीं। किनारे खड़ा होकर बराबर देखता रहता है।
समाज में चल रहा है، घर में रह रहा है। उसकी पत्नी भी है ، पुत्र भी है ، बन्धु-बांधव भी हैं ، सामाजिक कार्य है ، व्यापार भी करता है ، नौकरी करता है ، भगवान का भजन करता है ، हरिद्वार में स्नान करता है ، मगर ये सब एक द्रष्टा भाव से करता है ، उसमें लिप्त नहीं हो रहा है और जब ऐसा भाव स्पष्ट हो जाता है ، तो उसकी अवस्था को पश्यन्ती अवस्था कहा गया है। अपने-आप से अलग हट कर देखने की जो क्रिया है ، वह अत्यन्त महत्वपूर्ण अवस्था है ، वह ध्यान की ओर बढ़ने 'तीसरा कदम है' एक महत्वपूर्ण कदम है ، क्योंकि उसने अपने शरीर में से वह भाव ही हटा दिया जिससे सुख-दुःख विषाद पैदा होता है। वह एक उन्मनी अवस्था में आने की क्रिया प्रारम्भ कर लेता है ، उसके देखने का भाव बदल जाता है। किसी स्त्री को देखकर उसके मन में विषय-वासना पैदा नहीं होती। किसी रोगी को देखकर उसके मन में घृणा पैदा नहीं होती।
चौथी अवस्था 'अतल अवस्था' है। अतल-जिसका कोई ओर-छोर नहीं है ، वह इस संसार में होते हुए भी इस संसार का नहीं होता। उसका परिवेश ، उसका वातावरण ، उसका जीवन पूरे ब्रह्माण्ड में फैल जाता है उसका साक्षीभूत बन जाता है ، फिर मन में हिन्दू ، मुस्लिम ، सिख ، ईसाई और भाव तिरोहित हो जाता है। वह मन्दिर में भी उसी भाव से जाता है ، मस्जिद में भी उसी भाव से जाता है ، वह चर्च के सामने भी उसी भाव से झुकता है ، वह राम के सामने भी उसी भाव से झुकता है।
उसके मन में द्वैत का भाव धीरे-धीरे समाप्त होने की क्रिया प्रारम्भ हो जाती है ، अत्यन्त गहराई में जाने की प्रारम्भ हो जाती है ، जिसका कोई ओर-छोर नहीं है ، जहाँ न हिन्दू है ، न ईसाई है जहां किसी प्रकार का राग-द्वेष नहीं है। यदि कोई गालिंया देता है، उसके मुंह पर थूक देता है तो، उसके चेहरे पर क्रोध का भाव पैदा नहीं होता। हर्ष उल्लास के वातावरण में भी उसके चेहरे पर कोई विशेष भाव पैदा नहीं होता।
ऐसी जब स्थिति आती है، उस स्थिति को अतल स्थिति कहते हैं। यह ध्यान की ओर बढ़ने की अत्यधिक महत्वपूर्ण स्थिति है। ऐसा व्यक्ति जीवन के सारे क्रिया-कलाप उसी ढंग से करता है ، जिस ढंग से समाज का दूसरा व्यक्ति करता है। . है। उसे पड़ोसी की मृत्यु पर दुःख होता है तो ، वियतनाम में भी किसी व्यक्ति की मृत्यु पर दुःख होता है ، दोनों ही अवस्था में बराबर दुःख होता है। यदि बंगाल मे भूकम्प आता है और उसको दुःख होता है तो अमेरिका के किसी प्रांत में भूकम्प आने पर भी उतना ही दुःख होता है।
उसके सामने देश की भावना मिट जाती है। . है- उसको उतना ही दुःख व्याप्त होता है जितना उसके घर में क्षय होने पर व्याप्त होता है ، क्योंकि वह अपने-आप को पूरे संसार में फैला देता है। वह किसी एक स्थान ، एक देश ، एक काल में बंधा हुआ नहीं होता ، वह व्यापक हो जाता है ، उसकी दृष्टि व्यापक हो जाती है जब ऐसी स्थिति आती है तो उसे अतल अवस्था कहा गया है।
पाचंवी अवस्था 'प्राण अवस्था' का तात्पर्य यह है कि- अब वह जीवन की उस ऊर्ध्वगामी प्रवृति की ओर अग्रसर हो रहा है ، जहां उसके आगे ध्यान अवस्था है ، जहां विकार नहीं है। वह किसी भी स्थान पर बैठा है ، उसके मन में किसी प्रकार की भ्रांति नहीं हैं ، क्योंकि फिर उसके लिए भूख प्यास अपने-आप समाप्त हो जाते हैं ، स्वाद समाप्त हो जाता है- मैं अचार खाऊंगा ، मैं मिठाई खाऊंगा ، यह भावना आती ही नहीं، कड़वा खाने पर उसे किसी प्रकार का बोध नहीं होता، मीठा खाने पर भी उसे किसी प्रकार का बोध पागलपन की स्थिति नहीं अपने-आप से अलग हटकर निर्विकार होने की स्थिति है माध्यम से जीवित रहता है، शरीर के माध्यम से जीवित नहीं रहता।
यही वह अवस्था है، जहां शरीर समाप्त हो जाता है، और प्राण प्रारम्भ होते हैं। यही वह अवस्था है، जहां अन्नमय कोष समाप्त हो जाता है، और प्राणमय कोष प्रारम्भ हो जाता है। . ، उपनिषद् और कुरान और बाइबिल इन सभी समान रूप से देखता है- उसे रामायण में वही दिखाई देता है के माध्यम से तो एक साथ हैं ऐसी वह किसी घटना का साक्षीभूत बन जाता है ، क्योंकि प्राण तो अन्दर से निकली हुई वह तरंग है जो पूरे ब्रह्माण्ड में फैली हुई है ، अतः वह आंख बंद करके भी ब्रह्माण्ड में जो घटना घट रही है उसे चुपचाप देखता रहता है ، उससे कुछ भी छिपा नहीं रहता। किसी भी स्त्री या पुरूष को देखते ही उसका पूरा पिछला जीवन साकार हो जाता है، मात्र पिछला जीवन ही नहीं कई-कई जीवन साकार और स्पष्ट हो-इस क्षण अमरीका में क्या हो रहा है व्यापक है।
प्राण को भेद नहीं होता ، प्राण तो वह तरंग होती है जो समय के एक सेकण्ड के हजारवें में पूरे पृथ्वी 50 चक्कर लगा लेता है - 50 सेकण्ड के हजारवें हिस्से में ، तो फिर कहीं पर भी ، कोई भी घटना है तो उसकी आंखों के सामने हो जाती है ، ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जैसे टेलीविजन के पर्दे पर हम कोई दृश्य देखते है। वह कालातीत हो जाती है ، वह काल से परे हो जाता है प्रभु ने ، ईश्वर ने पर्दा डाल रखा है पिछले और इस जीवन के बीच में ، जिसके कारण हमें अपना पिछला स्मरण नहीं है ، परन्तु जब आदमी प्राणमय अवस्था में आ . व्यक्ति खड़ा है، वह कौन सी अवस्था में है، किस अवस्था में था मेरा क्या सम्बन्ध था، इसके पहले किस जीवन में क्या सम्बन्ध था बीस जीवन पहले क्या सम्बन्ध था पहले क्या सम्बन्ध था में क्या सम्बन्ध होगा और इससे आगे के जीवन में क्या सम्बन्ध होगा؟
क्योंकि काल को फिर वह टुकड़ों में नहीं देखता। पूरे काल को समग्र रूप से एक साथ देखता है और समग्र रूप से देखने की क्रिया का जो भान होता-वह प्राणगत अवस्था में पहुंचने पर ही संभव होता है। इसीलिये प्राणगत अवस्था में पहुँचा हुआ व्यक्ति एक उच्चकोटि का परमहंस अवस्था प्राप्त व्यक्ति कहलाता है ، एक संत कहलाता है ، एक तपस्वी कहलाता है ، जीवन-मुक्त कहलाता है ، क्योंकि- वहां जीवन की स्थिति नहीं है ، एक प्राण की अवस्थिति है। वे प्राण जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। वे प्राण जो अपने आप में निर्विकार، निर्विचार हैं। वे प्राण जो ब्रह्म का साक्षात् स्वरूप हैं। . होता है، जो सर्वत्र व्याप्त है।
प्राणगत अवस्था जीवन की एक उच्चतम अवस्था है، एक श्रेष्ठतम अवस्था है। जहां पर भूख ، प्यास ، नींद सुख-दुःख विलाप कुछ महत्व नहीं रखता। जहां देश ، काल ، पात्र महत्व नहीं रखते। वह समस्त संसार को बैठा-बैठा निर्विकार भाव से देखता रहता है। वह समझ लेता है- कहां क्यों हो रहा है ، किस प्रकार से हो रहा है। . जाने पर ही संभव होती है। अगला तल 'निर्बीज अवस्था' है। निर्बीज का तात्पर्य है- प्राणगत अवस्था से भी आगे पहुँचने की क्रिया। प्राणगत अवस्था में तो विश्व में या ब्रह्माण्ड में जो घटना घटित होती है، हम उसके साक्षीभूत मात्र होते है، हम केवल द्रष्टा होते हैं، केवल देखते रहते हैं- इस समय अफ्रीका में क्या हो रहा है، न्यूयार्क में क्या हो रहा है में क्या हो रहा है— या मेरी पत्नी क्या कर रही है— वह चुपचाप उसी प्रकार देख सकता है जिस प्रकार अपने आस-पास पड़ी वस्तुओं को देख सकता है।
، अपने मन की तरंगों के माध्यम से हिंसा की घटना को रोक सके، उनको परे हटा सके में वह स्थिति पैदा हो जाती है जब वह एक हिंसक पुरूष को भी अहिंसक बना सकता है। वह सर्प-विष को भी अमृतमय बना देता है ، वह बिगड़े हुए सांड को भी अपने आप में शांत और सरल देता है ، वह शेर को भी पूर्ण सदाचारी बना देता है ، वह युद्ध प्रेमियों को भी शांत और सरल चित्त बना सकता है।
क्योंकि उसमें क्षमता प्राप्त हो जाती है कि वह प्रकृति में हस्तक्षेप कर सके। मनुष्य के विचारों में हस्तक्षेप करके उसके अन्दर जो जहर है، जो विषैलापन है، जो हिंसा है، उसको दूर कर सके और ऐसा व्यक्ति सामने वाले मनुष्य के अन्दर से काम की भावना को दूर कर सकता है ، क्रोध की भावना को दूर कर सकता है । इतनी हिंसायें होती हैं उन हिंसाओं को दूर करने की सामर्थ्य उसमें आ जाती है। लोभ के वशीभूत होकर जितनी हत्याएं हो रहीं हैं- उस लोभ को ، उस पाशविक प्रवृति को मनुष्य के अन्दर से हटाने की क्षमता ، ऐसे व्यक्ति में आ जाती है। उसे यह क्षमता प्राप्त हो जाती है कि अन्दर की दुष्प्रवृतियों को परे धकेल कर उनको सही चिन्तन दे सके। हिंसक को अहिंसक बना कर उससे रचनात्मक काम ले सके।
. . पर सद्गुरू बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है। अभी तक इसके पूर्व जो अवस्था थी، वह केवल गुरू की अवस्था थी। लेकिन इस तल पर एक सद्गुरू बनता है ، क्योंकि उसकी भावना यही रहती है- '' मैं अपने शिष्य की काम ، क्रोध की प्रवृत्तियों को रूपान्तरित करूं ، उसको एक नया स्वरूप दूं ، उसको एक नया चिन्तन दूं ، एक नया विचार दूं— एक नयी धारणा दूं। "
इसके आगे की स्थिति 'मनस अवस्था' है। इस तल पर सम्पूर्ण रूप से मन को अपने हाथों में लीन कर देने की प्रवृति है। इस जगह पर पूर्ण समाधि، पूर्ण निश्चिन्तता प्राप्त करने की अवस्था है، फिर उसके मन में कोई भावना नहीं रहती، क्योंकि मन उसके नियंत्रण में है- - फिर मन उसको नहीं नचा सकता है मन को नचा सकता है। सातवें तल को जब वह स्पर्श करता है तब पूर्ण ध्यान अवस्था होती है- - जहां अपना कोई होश नहीं रहता रहते हुए भी होश में होश में रहते हुए होश में रहता है— वह जाग्रत और चैतन्य होते हुए पूर्णता प्राप्त होता है। उसके मन में काम ، क्रोध ، लोभ ، मोह नहीं होता ، उसके अन्दर किसी प्रकार की कोई प्रवृति नहीं होती। वह तो तटस्थ भाव से इस संसार मे रहता हुआ सभी कार्य करता रहता पूर्ण रूप से उसके नियंत्रण होता है ، अपना ही नहीं ، सामने वाले व्यक्ति ، शिष्य या मनुष्य जो भी हो ، उसके मन पर भी वह नियंत्रण प्राप्त कर सकता है। मन को रूपान्तरित कर ، एक डाकू को वाल्मीकि बनाया जा सकता है— उसको ऊंचाई पर उठाया जा सकता है- उस जगह ، उस गहराई में जाने की क्रिया 'ध्यान' कहते हैं। जब मनुष्य उस जगह पहुँच जाता है फिर भले ही उसकी आंखें बंद हों ، तब भी ध्यानावस्था में होता है। फिर भले ही उसकी आंखें खुली हों، तब भी ध्यानावस्था में होता है।
سؤال: इसे किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है؟ इसे प्राप्त करने के लिए जो रास्ता बताया गया है ، इस रास्ते पर चलने की क्रिया को समझना आवश्यक है ، क्योंकि यह निरन्तर ، सतत चलने की क्रिया है। ؟ यहां पर गुरू की आवश्यकता होती है— इन कठिनाइयों से बचाने के लिए ही एक सहारा ، एक माध्यम के रूप में सद्गुरू की आवश्यकता पड़ती है। यह आवश्यक नहीं कि गुरू हो तभी ध्यानावस्था में पहुंचा जा सकता है पहुँचा जा सकता है ، परन्तु वह रास्ता थोड़ा लम्बा होगा।
इस रास्ते में कांटे ज्यादा हो सकते हैं ، उसमें झाड़ ، झंखाड़ ، ज्यादा हो सकते हैं ، भटकने की क्रिया हो सकती है ، घबरा कर पगडण्डी बदली जा सकती है ، हो सकता है वह गन्तव्य तक न पहुँचे कहीं और चला जाये। इसीलिये इसको प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि कोई सहायक हो، कोई सहारा हो، कोई माध्यम हो، कोई गुरू हो जो सही अर्थों में सद्गुरू हो रास्ते पर चल चुका हो उस अवस्था में पहुँच चुका हो। फिर भले ही वह इस दुनिया में रहे या हिमालय में रहे। फिर वह साधारण अवस्था में रहे या दिखाई दे। फिर वह भले ही गैरिक वस्त्र पहने हुए हो या सामान्य श्वेत वस्त्र पहने हुए हो- वस्त्र अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता। लम्बाई ، मोटाई ، ऊँचाई अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता। महत्व रखती हैं तो- उसका चिन्तन، उसकी गहराई में उतरने की क्रिया، इस रास्ते पर चलने का भाव। इस रास्ते से परिचित होने की क्रिया।
जो इस रास्ते पर चल कर ध्यान की अवस्था तक पहुंच गया है ، ऐसा कोई सद्गुरू मिल जाता है तो मनुष्य का सौभाग्य है ، इस पूरी मनुष्य जाति का सौभाग्य होगा ، यदि ऐसा व्यक्तित्व मिलें ऐसा गुरू मिल जाता है तो मनुष्य जाति का सौभाग्य होता है कि उस युग में किसी ऐसे गुरू ने जन्म लिया। यह मनुष्यता का अपने-आप में सौभाग्य होता है कि उसके बीच में ऐसा कोई सद्गुरू है। उन व्यक्तियों को अपने-आप में सौभाग्य होता है कि वे ऐसे सद्गुरू की शरण में हैं और यह उसके जीवन का अहोभाग्य होता है ، यदि सद्गुरू उस व्यक्ति को अपना ले ، अपना मान ले। जीवन में श्रेष्ठतम सौभाग्य की स्थिति तभी होती है- जब ऐसा सद्गुरू उसे मिल जाये ، उसे अपना ले ، उसका हाथ पकड़ ले और सही पर खड़ा कर ، आगे की ओर बढ़ाने के लिए प्रवृत्त हो जाए। जिसके जीवन में यह घटना घटती है ، वह अपने आप में महत्वपूर्ण और अद्वितीय घटना होती है- यही महोत्सव होता है ، यह महारास की अवस्था होती है।
यह जीवन में एक उछाल की अवस्था होती है ، मनुष्यता से आगे चल कर पूर्णता की क्रिया प्राप्त होती है। जिसके जीवन में भी यह बिन्दु घटता है، उसकी तुलना तो देवता भी नहीं कर सकते। पूरी मनुष्य जाती उसकी ऋणी हो जाती है। यदि ऐसा ही कोई व्यक्ति मिले तो उसके बताये हुए रास्ते पर चल कर، इन सातों स्थितियों को प्राप्त करते हुए، अन्दर गहराई से उतर कर، उस जगह पहुँचे، जो सातवीं अवस्था होती है، जिसको ध्यान कहा गया है। जब व्यक्ति ध्यानावस्था में पहुँच जाता है، तब फिर जीवन में कुछ भी बाकी नहीं रह जाता। समस्त सिद्धियां उसके सामने नृत्य करती रहती हैं। विजय वर-माला लिये टुकुर-टुकुर निहारती रहती है।
लाखों-करोड़ों अप्सराएं उसके सामने नृत्य करती रहती हैं। ऋद्धि और सिद्धि हाथ बांधे उसके सामने खड़ी रहती हैं। तब उसके चरणों में हजारों-हजारों राज मुकुट बिखरे हुए पड़े रहते हैं। तब ऊंचे-ऊंचे श्रीमंत उसके चरणों में नमस्कार करते हुए दिखाई देते हैं। क्योंकि कई हजार वर्षों बाद ऐसा व्यक्तित्व अवतरित होता है— जन्म नहीं लेता ، जन्म लेने का तो एक अहसास कराता है कि- जन्म लिया ، सही अर्थों में तो वह अवतरित ही होता है। कई हजारों वर्षों बाद ऐसी घटना घटती है। इसलिये ऐसे व्यक्ति का जिस पीढ़ी में भी अवतरण होता है ، वही पीढ़ी भाग्यशाली होती है पहले की पीढ़ी सौभाग्यशाली कही जा सकती है बाद की पीढ़ी सौभाग्यशाली कही जा सकती है। उसी पीढ़ी को यह सौभाग्य प्राप्त होता है ، जिस पीढ़ी के समय एक सद्गुरू इस पृथ्वी तल पर अवतरण होता है।
बार-बार ईसा मसीह पैदा नहीं होते، हजारों वर्षों के बाद ईसा मसीह पैदा होते हैं। कई हजार वर्ष बाद एक महावीर ، बुद्ध ، कृष्ण पैदा होते हैं। हर वर्ष कृष्ण पैदा नहीं होते، राम पैदा नहीं होते، हर दस-बीस वर्ष बाद बुद्ध पैदा नहीं होते बाद पैदा होते हैं जीवन काल में उनको नहीं पहचान मानवता ने अपना बहुत कुछ खोया ही है। हिंसा، द्वेष، मार-पीट، छल-कपट और लड़ाइयां बढी हैं، शांति समाप्त हो गयी है व्यक्ति अवतरण होता है परिवर्तन की क्रिया सम्पन्न होती है और यह पीढ़ी का सौभाग्य है जिस पीढ़ी के पास ऐसा व्यक्ति होता है ، वह पीढ़ी अपने आप में महत्वपूर्ण होती है ، क्योंकि उसके सम्पर्क में ، उसके अहसास में ، उसके वातावरण में रहने का एक अवसर उपस्थित जो अहोभागी होते ، जो भाग्यशाली होते हैं ، वही अनिवर्चनीय व्यक्तित्व के सम्पर्क में आते हैं। वे उसके पास की क्रिया कर सकते हैं ، वे ही उसके सान्निध्य में रहने का सौभाग्य प्राप्त कर सकते हैं।
ऐसा ही व्यक्तित्व मनुष्य की उंगली पकड़ कर उस जगह पहुँचा देता है जहां देह की सातों अवस्थायें समाप्त होकर ، ध्यान की अवस्था प्रारम्भ होती है। जो ध्यान की अवस्था है ، वह अपने-आप में पूर्णता की अवस्था है ، एक बूंद से समुद्र बनने की अवस्था है ، प्रारम्भ से पूर्णता की अवस्था है ، श्रेष्ठता की अवस्था है।
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
السيد كايلاش شريمالي
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