गुरू का चित्र लगाना ، भजन गाना ، गुरू के नारे लगाना ، पूर्ण समर्पण नहीं है ، ये गुरू के प्रति शिष्य की भावना के चिन्ह मात्र है।
वास्तविक गुरू पूजन तो है गुरू द्वारा बताये गये ज्ञान को जीवित जाग्रत रखना ، गुरू द्वारा बताये मार्ग पर चलना।
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أكبر ممارسة روحية للحياة هي تذكر Sadguru في كل لحظة وتكريس كل عمل لك لـ Sadguru.
जब शिष्य हर कर्म इस भावना से करता है कि सद्गुरूदेव ही उसे निर्देशित कर रहे है तो उससे जीवन जीवन गलत कार्य हो ही नहीं सकता।
एक शिष्य गुरू चरणों में ही सभी लोकों के पावन तीर्थों، पवित्र गंगा، सागर तथा सभी देवी देवताओं का प्रत्यक्ष अनुभव करता है। उसके लिये गुरू चरणों की पूजा आराधना से बढ़ कर कोई अन्य साधना नहीं है।
बूंद जब नदी मे जाकर सागर से मिलती है तो उसके आनन्द का ठिकाना नहीं रहता। शिष्य भी जब गुरू के चरणों में समाहित होता है तो वह आनन्द से सरोबार हो जाता है। शिष्य के लिये गुरू चरणों से पावन कोई अन्य स्थान नहीं ، कोई तीर्थ नहीं।
गुरू चरणों में स्वयं को पूर्णतः तल्लीन करके सदा गुरू ध्यान में खोकर निरन्तर गुरू मंत्र का जप गुरू गुरू होकर ही शिष्य उस अद्भुत स्थिति तक पहुँचता है जहां वह पूर्णतः उनसे एकाकार हो जाता है। वही ब्रह्मानन्द की परम स्थिति है और उसी को प्राप्त करना हर शिष्य का धर्म और लक्ष्य होता है।
शिष्य को प्रसन्न मन से श्रद्धा पूर्वक गुरू को ही अपना परम लक्ष्य बना लेना चाहिये ، और यही एकमात्र माध्यम है जो शिष्य के जीवन को पूर्ण सौभाग्यशाली बना देता है।
शिष्य का तात्पर्य है कि निरन्तर गुरू के अनुकूल बनने की प्रक्रिया की ओर अग्रसर होना। शिष्य को गुरू में जो गरिमा है ، गुरू में जो ज्ञान है ، गुरू में जो पवित्रता है ، गुरू में जो दिव्यता है और गुरू में जो गुण है ، उन गुणों के अनुरूप बनना है ، आगे बढ़ाना है सफलता प्राप्त करना है।
शिष्य को अपने पर विश्वास होना चाहिये، क्योंकि आत्म विश्वास ही साधना है، विश्वास की डोर से बंध कर आगे बढ़ना ही सेवा है और आंसुओं के अर्घ्य से समर्पित हो जाना ही इष्ट दर्शन है।
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