क्रिया योग को लाहिड़ी महाशय ने भी समझाने का प्रयास किया ، विशुद्धानन्द ने भी समझाने का प्रयत्न किया ، मगर क्रिया योग स्वयं में इतना अगाध और विशाल समुद्र है ، जिसको दो छोरो में बांधा ही नहीं जा सकता। इसको समझाने के लिये अपने-आप को समुद्रवत् बनाना ही पड़ता है। मैंने यह समझाया ، कि व्यक्ति किस प्रकार से अपने जीवन में धारणा को स्थान दे और धारणा के बाद किस प्रकार क्रिया करते हुये वह ध्यान में प्रवेश कर सकता है आप एक दिन गुंजरण करेंगे، तभी आपको एहसास होगा، कि इससे मानसिक तृप्ति भी अनुभव होती है। .
इसलिये कि उसे सुख मिले और उस सुख और आनन्द की प्राप्ति के लिये अज्ञानवश अधोगामी प्रवृत्तियों की ओर जाता जाता जितना ही वह अधोगामी प्रवृत्तियों की बढ़ता है ، उतना ही वह दुःख के दलदल में फंसता जाता है।
संतान पैदा करना अपने आप में सुख का अनुभव हो सकता है ، परन्तु उसको बड़ा करना बड़ा ही श्रमसाध्य है। वह कोई आसान काम नहीं है ، बहुत सी परेशानियां ، कष्ट है इसमें इसके बाद भी संतान से सुख मिले ، कोई जरूरी नहीं है और यदि सुख भी जाय ، तो भी वह सुख अपने-आप में आनन्द नहीं दे सकता।
सुख दूसरी चीज है और आनन्द दूसरी चीज है। पंखा चल रहा है، यह मुझे सुख तो दे सकता है، मगर आनन्द नहीं दे सकता। यदि कोई मानसिक तनाव में है ، तो बेशक ए-सी- लगा हुआ हो ، नौकर चाकर हों- सब कुछ बेकार है। यदि व्यक्ति बीमार है ، अशक्त है ، हार्ट का मरीज है ، तो उसको धन और मकान कहाँ से सुख देंगे؟ ये सब उसे आनन्द नहीं दे सकते। आनन्द की जो प्रवृत्ति है ، जीवन का जो सच्चिदानन्द स्वरूप है ، जिसको सत् चित् और आनन्द कहते हैं ، वह तो जीवन की उर्ध्वगामी प्रवृत्तियों से ही मिलता है।
आप आसानी से गुंजरण क्रिया के माध्यम से ध्यान में पहुँच सकते हैं। ध्यान जहां अपने आपको अपना ज्ञान नहीं रहे، हम थॉटलैस माइण्ड बना सकें، अपने आप में रह सके और पूरी तरह से अपने आप में ही डूब जायें। लेकिन हमने गुंजरण करना छोड़ दिया। .
मैं आनन्द शब्द प्रयोग कर रहा हूँ सुख शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ सुख तो आप पैसा खर्च करके भी प्राप्त कर सकते हैं ، पर आनन्द नहीं। सुख के व्यूह में फंस कर तो आपको उन तृष्णाओं की ओर से भागना ही पड़ेगा। ऐसे जीवन का तो कोई अन्त है ही नहीं ، क्योंकि जो सुख दिखाई दे रहा है वह सुख नहीं है। यदि यही सब सुख होता तो जीवन में इतनी विसंगतियां ، इतनी बाधायें ، परेशानियां नहीं आती।
जीवन में आनन्द की प्राप्ति का पहला पड़ाव ध्यान है सत् ، चित् और आनन्द। आनन्द तो बाद में है पहले हम अपने जीवन को सत्यमय बना सकें، उसके बाद ही अपने चित् तक पहुँच सकते हैं चित को नियंत्रित कर सकते हैं और तभी आनन्द की प्राप्ति हो सकती है। यदि हम देखें ، तो अपने जीवन-आनन्द की प्राप्ति के लिये नहीं भटक रहे हैं ، इसके लिये आप प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। आप प्रयत्न कर रहे हैं- सुख की प्राप्ति के लिये ، - और सुख अपने आप में संतोष ، आनन्द ، धैर्य ، मधुरता ، प्रेम नहीं दे सकता ، क्योंकि हमने उन कलाओं को भुला दिया है ، उस ध्यान की प्रक्रिया को भुला दिया है।
ध्यान के बाद तीसरी स्टेज होती है، 'समाधि'। समाधि के बारे में याज्ञवल्क्य ने एक सुन्दर श्लोक में समझाया है-
العقل يا رب هو الشكل المثالي للمتكلمين ، والعقل دائمًا ما يكون في حدود الرحمة.
आत्मं परां परमतां परमेव सिन्धु، सिद्धाश्रमोद वरितं प्रथमे समाधि ।।
समाधि वह होती है ، जब हम स्वयं को सुखों से बिल्कुल अलग करके ، परम आनन्द में लीन हो सकें ، क्योंकि सुख अपने आप में भोगवादी प्रवृत्ति की परिचायक है। सुख से भोग पैदा होता है ، भोग से रोग पैदा होता है और रोग से मृत्यु पैदा है रास्ता आप में मृत्यु की ओर जाने जाने का है। मृत्यु को परे हटाकर हम प्रकृति से बातचीत करना सीखें। पुष्प को तोड़ कर कोट की जेब में डालने की जरूरत नहीं है ، इसकी अपेक्षा उस पुष्प से बात करने की कला सीखें। प्रकृति के बीच में यदि बैठ जायें- तो घंटे दो घंटे अपने आपको भुला सकें और उसके साथ ही कोशिश करें चित् को पकड़ने की ، जो गुंजरण क्रिया के माध्यम से जाग्रत होता है।
जब वह हृदय कमल अपने आप में प्रस्फुटित होने लग जाता है ، तब अमृत वर्षा होने लगती है। नाभि में अमृत कुंड है، जिसके माध्यम से पूरा जीवन संचालित होता है। . ।
चित् के निकट पहुँचने पर आप उस समाधि में लीन होंगे ، जहां ، आपको तीन अवस्थाये प्राप्त होंगी। पहली अवस्था में हम गुंजरण क्रिया करें ، शंख और सोऽहं मंत्रोंच्चारण के माध्यम से जितनी देर तक हो सके ، करें। बत्तीस मिनट की गुंजरण क्रिया पूर्ण कहलाती है। उच्चकोटि का योगी बत्तीस मिनट तक सांस को नहीं टूटने देता। प्रारम्भ में व्यक्ति एक मिनट या दो मिनट गुंजरण क्रिया कर सकता है पर बाद में यह अवधि धीरे-धीरे बढ़ती रहेगी। इस क्रिया को करने के लिये किसी पाठशाला में बैठने की जरूरत नहीं है ، मात्र 'सोऽहं' के गुंजरण के सहारे इस सारे शरीर को चार्ज किया जा सकता है।
इस क्रिया के माध्यम से योगी शून्य में आसन लगा लेते हैं ، जमीन के ऊपर उठकर साधना कर लेते हैं। जब भर्तृहरि ने सोऽहं साधना करनी चाही तो गुरू ने कहा- ऐसी जगह साधना करना ، जो अपने आप में अत्यन्त पवित्र स्थान हो और उसने पूरी पृथ्वी को देखा ، परन्तु ऐसा कोई स्थान नहीं मिला। पूरी पृथ्वी पर हजारों बार आबादियां बनी और नष्ट हो गयी। जमीन का कोई भी हिस्सा ऐसा नहीं है ، जिस पर थूक ، लार ، रक्त नहीं गिरा हो ، कौन सा स्थान पवित्र है ، जहां पर बैठकर सोऽहं साधना की जाय؟
भर्तृहरि ने कहा- मुझे तो पृथ्वी पर ऐसा कोई भी स्थान दिखाई नहीं दे रहा है ، जहां पर किसी प्रकार की असंगति नहीं रही हो गुरू ने बताया- केवल एक ही स्थान है जमीन से ऊपर उठकर ही यह साधना सम्पन्न हो सकती है। गुंजरण क्रिया के माध्यम से शरीर के अन्दर उतनी विद्युत ، उतनी ऊर्जा पैदा हो जाये ، जिससे वह हल्का हो ، ऊपर उठ सके।
अभ्यास तो आपके हाथ में है، क्योंकि यह तो क्रिया योग है। आप करके तो देखें और नहीं हो ، तो फिर आलोचना कर सकते हैं ،
फिर मैं आपके प्रति जिम्मेदार हूँ ، मगर आप करेंगे ही नहीं और खड़े होकर आलोचना कर देंगे तो फिर आलोचना करना कोई बहुत बड़ी बहादुरी और विशेषता की बात नहीं है ، कायरता की बात है हमने इसे एक फैशन सा बना रखा है।
हम जो कुछ भी कहें، पहले हम स्वयं दमखम के साथ करें। उस गुंजरण क्रिया को इतनी तेजी के साथ करें ، जिससे अन्दर विद्युत पैदा हो सके ، हीट पैदा हो सके और वायुयान जब हीट बनती है ، तो उस विद्युत प्रवाह के कारण से ही इतना बड़ा हवाई जहाज ऊपर उठ जाता है कर दिया जाय ، हीट निकलने का रास्ता बना दिया जाय ، तो क्या वायुयान ऊपर उठ सकता है؟
आपने अपने जीवन में किसी मरते हुये आदमी को देखा नहीं ، वह भी अपने आप में एक अनुभव है। . एक लिंग، एक नाभि और दो कान। इन दसों द्वारों से अंदर की विद्युत बाहर निकलती है। यह विद्युत का प्रवाह है ، जिसके द्वारा मैं तुम्हें देख रहा हूँ आंखो के माध्यम से ، ये विद्युत ही है ، कि मैं तुम्हारी बात को सुन रहा हूँ ये अन्दर से निकलती तरंगें हैं ، जो मैं बोल रहा हूँ। अन्दर से बाहर निकलने की क्रिया विद्युत का विपरीतीकरण है।
मगर मैंने कहा- उस चार्ज को एकत्र करें और विद्युत बाहर नहीं निकले। साधारण रूप से तो बाहर निकलेगी، क्योंकि भगवान ने ढक्कन तो दिये नहीं। . ، वह अन्दर ही रहेगी। उस गुंजरण के माध्यम से उत्पन्न हुई विद्युत ऊर्जा को अन्दर रोकने की क्रिया अपने आप में चैतन्य क्रिया कहलाती है ، यह समाधि अवस्था का प्रारम्भिक बिन्दु है।
चैतन्य क्रिया कैसे हो जाती है؟
चैतन्य का मतलब है- अन्दर के चित्त को ، अन्दर के समस्त चक्रों को क्रियान्वित कर देना। कुण्डलिनी जागरण के लिये यह आवश्यक नहीं، कि एक-एक चक्र को क्रम से जाग्रत करें। एक साथ ही पूरे चक्र जाग्रत किये जा सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण का अर्थ है- पहले आप भस्त्रिका करें ، मूलाधार करें ، फिर आप स्वाधिष्ठान चक्र को जाग्रत करें ، इस प्रकार बारी-बारी से चक्रों को जाग्रत करें ، पर इसमें कई बार गड़बड़ भी हो जाती है। कुण्डलिनी जागरण की क्रिया थोड़ा सा रास्ता बदल देती है ، तो आदमी का दिमाग बिलकुल असंतुलित हो जाता है। मगर इस क्रिया के माध्यम से एक-एक चक्र नहीं ، अन्दर के सारे चक्र एक साथ जाग्रत हो जाते हैं ، जिसको 'पूर्ण कुण्डलिनी' जागरण कहते हैं या सहस्त्रार जागरण कहा जाता है और यह इस चैतन्य क्रिया के माध्यम से ही संभव है।
दसों द्वारों को बंद कैसे करें؟
मैं प्रैक्टिकल विधि समझा रहा हूं। इन दसों द्वारों को बंद करने के लिए बायें पैर की एड़ी को गुदा पर रख दें। उसके ऊपर बैठ जायें और दाहिने पैर को लिंग स्थान पर रख दें। यह सीधी क्रिया है और इस क्रिया में व्यक्ति दस घंटे बैठे तो भी थक नहीं सकता। हाथ के दोनों अंगूठों से दोनों कान के परदे बंद कर दें। दोनों तर्जनी उंगलियों के माध्यम से दोनों आंखों को बंद कर दें। मध्यमा के माध्यम से दोनों नथुने और अनामिका व कनिष्ठिका के माध्यम से होठों को बंद कर दें। अब उसके बाद गुंजरण क्रिया प्रारम्भ करें। यह एक मिनट का अभ्यास करके देखें ، पांच मिनट के अभ्यास के बाद आसन के नीचे से स्पेस बनेगा ، यह गारण्टी की बात है ، आप करके देखें। आप करेंगे तो आपका शरीर ऊपर उठने की ओर अग्रसर होगा।
दसों द्वारों को बंद करके आठ मिनट के गुंजरण की क्रिया द्वारा प्राप्त अवस्था को ही समाधि कहते हैं। इस अवस्था में पूर्ण समाधि लग जाती है ، उसमें शरीर को पूर्ण शून्यवत् बनाते हुये ، जमीन से ऊपर उठने को समाधि क्रिया कहते हैं। समाधि क्रिया में आवश्यक है، अन्दर के सारे चक्र जाग्रत हों। हम अन्दर के सारे चक्रों को जाग्रत रखते हुये ، अन्दर से पूर्ण जाग्रत रहते हुये बाहर से सुप्त हो जायें ، बाहर की कोई स्थिति हमारे ऊपर हावी नहीं रहे ، ऐसी स्थिति को ही समाधि कहते है।
अब आप प्रश्न करेंगे- अगर यह समाधि है ، तो फिर हमारा शरीर ऊपर उठता ही रहेगा؟
. की तीव्रता पर निर्भर है और फिर जितना ही गुंजरण कम करेंगे ، उतना ही वापिस नीचे आ जायेंगे।
अब आप कहेंगे कि क्या समाधि पूरा ज्ञान रहता है؟ क्या आभास रहता है ، कि अब मैं गुंजरण कम करूं या ज्यादा करूं؟
السمادهي تعني- अन्दर की सारी चेतना जाग्रत रहना। बाहर से आप कट आफ होते है और अन्दर एक प्रकाश बिखर जाता है और प्रकाश जब अन्दर बिखरता है ، तो वह चेहरे के ऊपर भी दिखाई देने लग जाता है। भगवान राम और श्रीकृष्ण के चित्रों के चारों ओर एक वर्तुल ، प्रकाश की गोल रेखा देखी होगी। वह प्रकाश की रेखा अगर उन लोगों के मुख पर बन सकती है ، तो आप लोगों के भी बन सकती है ، क्योंकि आप स्वयं ब्रह्म हैं। अन्दर का जो आनन्द है ، वह शरीर के ऊपर से जब बाहर बिखरने लग जाता है ، तो सामने वाला देखते ही एकदम से ठगा सा रह जाता है। इतना तेजस्वी चेहरा ، इतनी दिप दिप करती आंखें ، क्या चेहरा है ، क्या प्रकाश है ، जरूर कोई बहुत बड़ा आदमी है ، क्या आनन्द का प्रस्फुटन है!
समाधि में अन्दर तो सारा चैतन्य रहता ही है ، यही नहीं उस चैतन्य अवस्था में ऑक्सीजन की भी आवश्यकता नहीं होती। भूमिगत मेंढक ऑक्सीजन लेते ही नहीं। मेढ़क को यदि आप छः महीने तक बंद कर दें ، तो वह बिना ऑक्सीजन के भी जिंदा रह लेगा। मनुष्य को ऑक्सीजन बार-बार क्यों लेनी पड़ती है؟ क्योंकि बार-बार हाथ हिलाता है ، पांव हिलाता है ، देखता है ، चलता है— और उसकी शक्ति समाप्त होती जाती है ، इसीलिये आपको बार-बार सांस लेनी है बाहर से। जब शक्ति खत्म होगी ही नहीं، तो अन्दर जो ऑक्सीजन है، वह आपको जीवन्त बनाये रखने के लिये पर्याप्त होगी।
इसीलिये समाधि दो दिन की भी ली जा सकती है। और समाधि के आगे की क्रिया को अमृत्यु कहा गया है। समाधि तो कितने ही वर्षों की हो सकती है और जितने वर्षों की आपकी समाधि है ، उससे कई गुना ज्यादा आपकी आयु हो सकती है। शरीर को चैतन्य करने के लिये ، सारे चक्रों को जाग्रत करने के लिये और अमृत तत्व को अपनी नाभि में एकत्र करने के लिये यही क्रिया है ، जिसको चैतन्य क्रिया कहा गया है।
इस क्रिया के माध्यम से अन्दर गुंजरण को निरन्तर प्रवाहित किया जा सकता है، जिसकी वजह से व्यक्ति शून्य समाधि लगा पाता है से ऊपर समाधिस्थ है और ऐसा होने पर उसके अन्दर ، एक प्रकाश का उदय होगा झलकेगी। आपने भगवान कृष्ण की आंखों में कभी एक उदासी या खिन्नता नहीं देखी होगी। जब भी आँखों में देखते हैं، एक मस्ती दिखाई देती है، यह अन्दर का प्रभाव है। वही प्रभाव जीवन में प्राप्त हो सके، इसी प्राप्त होने की क्रिया को समाधि कहते हैं। यह तो सीधी सादी सी एक्टिविटी है، जिसमें कहीं कोई मंत्र जप नहीं करना है।
क्रिया तो आप ही करेंगे ، यदि आपको जीवन में ऐसा आनन्द प्राप्त करना है ، जीवन में यदि पूर्णता प्राप्त करनी है ، तो आपको क्रिया करनी ही है। गुरू तो आपको केवल रास्ता दिखा सकते है। ؟ आप गुरू की बात सुनकर हूं-हूं करते रहें और घर चले जायें ، फिर चार-छः महीने बाद में कहें ، कि गुरूजी बहुत दुःखी हूँ।
अरे! गुरू जी ने तो चार घंटे गला-फाड़ कर क्रिया योग की विधि को समझाया था ، उसका क्या हुआ؟ अरे गुरू जी! वह तो सब ठीक है ، मगर अब व्यापार चलाने के लिये मैं क्या करूं؟
ये तो आपकी अधोगामी प्रवृत्तियां हैं، जिनका फल आप भुगत रहे है، इसमें गुरू तो कुछ कर नहीं सकते। गुरू तो आपको ऊर्ध्वगामी प्रवृत्तियों की ओर बढ़ा ही सकते हैं।
यह सीधे सादे शब्दों में क्रिया योग है ، यही अपने आप में क्रिया योग की पूर्णता ، सिद्धाश्रम प्राप्ति का चरण है ، इसी को सिद्धाश्रम साधना कहते हैं और यही जीवन की पूर्णता है। यदि आपने लाहिड़ी महाशय का ग्रंथ पढ़ा हो ، तो उसमें क्रिया योग के बारे में लिखा है और उन्होंने प्रारम्भ के पृष्ठों में उल्लेख है है कि क्रिया योग की दीक्षा लिये कितना कितना अधिक भटकना पड़ा। कितनी परेशानियाँ हुईं ، किस-किस प्रकार से मेरी परीक्षायें ली गयीं। मेरे गुरू ने मुझे कितना ठोक बजा कर देखा ، तब उन्होंने मुझे दीक्षा के योग्य पात्र समझा और इसी परिश्रम की वजह से ، श्यामाचरण का बेटे रहे या नहीं रहे ، मगर श्यामाचरण का नाम मुझ को आज भी याद है। मां आनन्दमयी का नाम मुझको और आपको ज्ञात है। उत्तम कोटि के व्यक्ति वे होते हैं، जो अपने नाम से दुनियां में छा जाते है।
आपके सामने कई रास्ते हैं। मान लीजिये की आप चालीस वर्ष की अवस्था में पहुँच गये हैं। चालीस वर्ष की अवस्था के बाद आप जीवन की अधोगामी प्रवृत्तियों में चलेंगे ، तो किसी भी हालत में बिड़ला तो बन नहीं सकते ، टाटा भी नहीं बन सकते। लूनी गांव में एक व्यक्ति थे ، उनकी उन्नीस संताने आज भी जिंदा हैं ، चौबीस पैदा हुये ، उनमें पांच मर गये और उन्नीस जिंदा हैं ، आप तो उस स्टेज पर भी नहीं पहुँच सकते हैं। भौतिकता के रास्तों पर तो असंख्य लोग चले हैं ، परन्तु ये ऊर्ध्वगामी रास्ते बिलकुल अछूते हैं। इन रास्तों पर बहुत ही कम लोग चल सके हैं। इन रास्तों पर चल करके आप पूरे देश में नाम कमा सकते हैं، हजारों लोगों का कल्याण कर सकते हैं، अपना स्वयं का मार्गदर्शन कर सकते है।
मैंने जैसा कहा ، कि चौबीस घंटों में से केवल आधा घंटा भी ऐसा करेंगे ، तो यह भी गुरू सेवा ही होगी। इतना तो गुरू दक्षिणा लेना गुरू का हक है। गुरू दक्षिणा के रूप में आप से गुरू न धोती चाहते हैं، न कुरता चाहते हैं، न पांच रूपये चाहते हैं तो चाहते हैं कि आप नित्य आधे घंटे क्रिया योग का अभ्यास करें ، उनके लिये तो यही गुरू दक्षिणा है। उत्तरार्द्ध की दीक्षा अपने आप में ही अत्यन्त अद्वितीय है। जैसा कि मैंने बताया ، कि क्रिया योग का पूरा तथ्य समझाने पर ही उत्तरार्द्ध दीक्षा दी जाती है।
इसलिये मैंने आपको समझाया، कि समाधि अवस्था कैसे प्राप्त की जाती है، शून्य में आसन कैसे लगाया जाता है और शून्य आसन के माध्यम से नभ में हजारों करोड़ों मील जाकर के आ सकते हैं। सशरीर जाने की क्रिया कौन सी है ، उसको समझाने पर ही उत्तरार्द्ध दीक्षा दी जाती है और यह दीक्षा प्रदान कर पूर्ण क्रिया योग का ज्ञान शिष्य की आत्मा में प्रविष्ट करा देता है।
كونداليني وكريا يوجا
क्रिया योग जीवन का एक ऐसा सत्य है ، जिसके माध्यम से हम स्वयं एक्टिविटी करते हुये ، स्वयं क्रिया करते हुये अपने इस शरीर को पूर्णता प्रदान कर सकते हैं और उस काल को ، जो भूत और भविष्य का एक सेतु है ، उसको देख सकते हैं जीवन में और हृदय में आनन्द का एक स्त्रोत उजागर कर सकते है، अमृत कुंड स्थापित कर सकते हैं، जिसके माध्यम से हम वायवीय शरीर में، पूरे ब्रह्माण्ड में विचरण करने में समर्थ हो सकते हैं। ऐसी क्रिया योग दीक्षा प्राप्त करके साधक निरन्तर क्रिया करता हुआ अपने जीवन में उन्नति की ओर अग्रसर हो सकता है। मगर इसके साथ ही साथ कुण्डलिनी जागरण के बारे में भी मैंने पहले विवेचन किया है ، लेकिन जब क्रिया योग को हम समझ लेते हैं तो कुण्डलिनी जागरण मैट्रिक की स्टेज है वह तब तक तो बहुत जरूरी है ، जब हम क्रिया योग की तरफ बढ़े नहीं हो ، जब हमने क्रिया योग देखा नहीं हो ، समझा नहीं हो ، सीखा नहीं हों ، उसका अनुभव नहीं किया हो ، मगर जब हम एक बार क्रिया योग की तरफ बढ़ जाते हैं، तो कुण्डलिनी अपने आप में एक सामान्य सी स्थिति बनकर रह जाती है।
. वह हो जाती है ، और वह क्रिया है- भूतकाल को देखने की शक्ति और सामर्थ्य पैदा करना। जिस प्रकार सहस्त्रर ग्रंथि शरीर की अन्तिम अवस्था है ، उसी प्रकार मूलाधार ग्रंथि जीवन की प्रारम्भिक अवस्था है। मूलाधार से लगाकर सहस्त्रर तक पहुँचने की क्रिया को कुण्डलिनी जागरण कहते हैं।
कि इस जड़ शरीर को चेतना बनाया जा सकता है؟ हमारे शरीर में बहत्तर हजार नाडि़यां हैं और बहत्तर हजार नाडि़यों में तीन नाडि़यां मुख्य हैं ، जिनको इड़ा ، पिंगला और सुषुम्ना कहते हैं। तीनों नाडि़यों का प्रारम्भ रीढ़ की हड्डी जहां समाप्त होती है، वहां से होता है और पूरे शरीर में ये नाडि़यां व्याप्त है।
आज्ञा चक्र में केवल सुषुम्ना नाड़ी पहुँचती है और इड़ा मस्तिष्क तक पहुँचती है। इन तीनों का अलग-अलग स्थान है। हृदय पक्ष में समाप्त हो जाने वाली पिंगला है। जो केवल बुद्धि से ही ज्यादा कार्य करते हैं ، उनकी इड़ा ज्यादा जाग्रत होती है। जो हृदय पक्ष को लेकर चलते हैं ، उनकी पिंगला नाड़ी ज्यादा प्रभावयुक्त है और जो भौतिकता का और आध्यात्मिकता का संगम करके आगे की ओर बढ़ते हैं ، वे सुषुम्ना नाड़ी को लेकर ज्यादा चलते हैं। यदि हम किसी वैद्य के पास जायें ، तो सारे शरीर में कहीं पर भी रोग हो ، वह केवल इन तीन नाडि़यों पर हाथ रख करके ، उंगलियों के माध्यम से ، उनके स्पन्दन से एहसास कर सकता है कि पूरे शरीर में कहाँ पर रोग है ، किस प्रकार का रोग है؟
इसका मतलब यह हुआ कि हाथ की कलाई में जो नाडि़यां हैं ، उन नाडि़यों का पूरे शरीर से सम्बन्ध है। हृदय को ، दिमाग को और पूरे शरीर की चेतना को एक साथ संगुम्फित करने में इन तीनों कुण्डलिनी नाडि़यों का सहयोग और इन नाडि़यों के सहयोग को ही कुण्डलिनी कहते हैं।
मगर उस समाप्त होने की क्रिया से पहले यह पूरे शरीर में से विचरण कर लेती है। जैसा कि मैंने बताया ، पिंगला नाड़ी रीढ़ की हड्डी के नीचे से प्रारम्भ होकर हृदय पक्ष में समाप्त हो जाती है ، तो इसका मतलब यह नहीं ، कि मस्तिष्क पक्ष के ऊपर इसका अस्तित्व ही नहीं है ، यह तो रीढ़ की हड्डी में से निकलकर पूरे शरीर और मस्तिष्क में घूमती हुई، फिर हृदय पक्ष में जाकर समाप्त होती है।
यदि आपने रीढ़ की हड्डी देखी हो ، तो वह बिल्कुल खोखले बेलन की तरह है ، जिसमें बत्तीस छल्ले हैं ، बिल्कुल गोल। इन छल्लों में से होती हुई ये नाडि़यां आगे की ओर अग्रसर होती हैं ، मगर ये तीनों ही नाडि़यां सुप्तावस्था में हैं। यह तो मैंने पहले ही बताया था कि हमारा अट्ठानवे प्रतिशत शरीर सुप्तावस्था में है ، चेतनायुक्त नहीं है। उसी जड़ अवस्था में ये तीनों नाडि़यां भी हैं ، और तीनों को जिस प्रकार से जाग्रत किया जाता है ، उस क्रिया को कुण्डलिनी जागरण कहते है। इसका मकसद है، पूरे शरीर को चेतनायुक्त बनाकर ऊर्ध्वगामी पथ पर अग्रसर होना।
नृत्य करना किसी प्रकार का भोंडापन नहीं है ، यह तो जीवन का एक उद्वेग है ، अपने आपको प्रस्फुटित करने की क्रिया है। यदि जीवन में नृत्य नहीं होता ، तो कुंठायें व्याप्त हो जाती— और ऐसे व्यक्ति ، जो नृत्य नहीं कर सकते ، जो अपनी भावनाओं को व्यक्त नहीं कर सकते ، वे चिड़चिड़े हो जाते हैं वे अपने में गुमसुम रहकर अपने जीवन को भार स्वरूप ढोने वाले हो जाते है।
हमारे पूर्वजों ने होली का एक त्योहार रखा। आज से चालीस साल पहले जैसा होली का त्योहार होता था ، अब तो वैसा रहा ही नहीं। . यह उच्च वर्ग की घटना है- कोई मजदूर या कृषक वर्ग की बात नहीं कर रहा हूँ।
ऐसी प्रथा क्यों रखी पूर्वजों ने؟
यदि आपने होली गीत सुने हों तो उसमें आपने देखा होगा कि व्यक्ति अपनी विचारधारा को कई प्रकार से व्यक्त करता है। व्यक्ति की जो दमित इच्छायें होती हैं، उनके पूर्णरूप से प्रदर्शित करने के लिये एक जगह बना दी। अगर वह जगह नहीं बनेगी ، तो व्यक्ति अन्दर से दमित और कुंठाग्रस्त हो जायेगा ، इसलिये ये दो-तीन दिन बना दिये कि व्यक्ति अपनी बात को खुलासे से कह दे ، जो कुछ भी है ، बोल दे।
नृत्य भी उन्हीं भावनाओं को प्रस्फुटित करने की क्रिया है। यह कोई भोंडा प्रदर्शन नहीं हैं यह तो जीवन की भावनाओं का उद्वेग है और जीवन की भावनाओं उद्वेग वही वही प्राप्त कर है जिसकी सुषुम्ना नाड़ी और का ، हृदय पक्ष का प्रस्फुटन हुआ हो। जो हृदय से जाग्रतवान होते हैं، वे ही अपने आप में मुस्करा सकते है।
आपने अट्टहास शब्द तो सुना ही होगा कि हमारे पूर्वज जोरों से अट्टहास लगाते थे। आज यह शब्द हम केवल सुनते है। ऐसा देखते नहीं ، आज अगर कोई व्यक्ति जोरों से हँसे ، तो हम कहते हैं- यह तो असभ्यता है ، बड़ा ही असभ्य है ، गंवार की तरह हंस रहा है जोर-जोर से। घर की बेटी अगर जोर से हंसने लग जाय तो कहेंगे- तुझे शर्म नहीं आती की बहू-बेटियों के ये लक्षण हैं؟ रोती हुई लड़की या लड़का बड़ा अच्छा लगता है और हम कहते हैं- वह बहुत गंभीर है। व्यक्ति अट्टहास के साथ अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकता है ، मगर हंसी शुद्ध और निर्मल होनी चाहिये।
होली का त्योहार नृत्य ، कलाओं का चिन्तन और अपने आप में निमग्न हो जाने की क्रिया तो चैतन्य महाप्रभु से प्रारम्भ हुई है। हमारे शास्त्रों में वर्णित है कि पहले सभी स्त्रियां नृत्य करती थी और जिस बहू को नृत्य करना नहीं आता था ، वह गंवार मानी जाती थी। अब तो सब कुछ बदल गया है، क्लब में जाना، पत्ते खेलना، शराब पीना، सिगरेट के छल्ले उड़ाना- ये सब आज के जीवन का एक प्रस्फुटीकरण है।
इस कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से भी जीवन का सारा आनन्द प्रस्फुटित होता है और व्यक्ति नर्तनयुक्त बन जाता है। नृत्य करना है- आँखो के माध्यम से नृत्य करता है- शरीर के माध्यम से नृत्य करता है- चेतना के माध्यम से नृत्य करता है- बातों के माध्यम से ، बात ऐसी सटीक करता है ، कि सामने वाला एहसास करता है ، कि कुछ उत्तर मिला । तुरन्त उत्तर दिया जाये और सटीक उत्तर दिया जाय ، यह अपने आप में बहुत बड़ी कला होती है।
मैंने सुख और आनन्द में अन्तर बताया। सुख तो हम पैसे से प्राप्त कर सकते हैं ، क्योंकि हम बाहरी प्रवृत्तियों को सुख मानते हैं। आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते ، क्योंकि आनन्द प्राप्त करने के लिये तो अन्दर की सारी प्रवृत्तियां जाग्रत करनी है और और सारी वृत्तियां जिस प्रकार जाग्रत होती हैं ، उसको कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है ، यह उसका मूल आधार है।
कुण्डलिनी का मूल आधार मूलाधार चक्र है। उसके बाद स्वाधिष्ठान चक्र है। एक-एक करके चक्रों को जाग्रत करने की क्रिया का बेस क्या है ، आधार क्या है ، यह मैं पहले ही स्पष्ट कर चुका हूँ।
शास्त्रों में बिल्कुल स्पष्ट रूप से बताया है कि व्यक्ति सही अर्थों में सांस लेना भूल गया है। आप सांस ले रहे हैं، मगर जैसा मैं पहले ही उल्लेख कर चूका हूँ। आपको सांस लेना आता ही नहीं، क्योंकि सांस का सम्बन्ध सीधा नाभि से है। जब आप सांस लेते हैं، तो आपके नाभि प्रदेश में स्पन्दन होना चाहिये।
यदि आपको देखना है ، तो केवल चार-छः महीने के बच्चे को देखें ، कि वह सांस ले रहा है और उसकी थर-थर हिलती है ، स्पन्दनयुक्त होती है ، पूरी नाभि बराबर धड़कन युक्त बनी रहती है और जब आप सांस लेते हैं ، तो केवल गले तक ही लेते हैं। सांस लेना आपको एक बच्चे से सीखना चाहिये और व्यक्ति सांस लेकर अपनी नाभि को स्पन्दित कर सकता है तो वह व्यक्ति स्वतः अपने चक्रों को भी जाग्रत कर सकता है।
मगर हमारे सारे शरीर में दुर्गन्धयुक्त वायु भरी हुई है। जहां कोई चीज नहीं होती، वहां वायु होती है। जब सांस लेते हैं، तो कंठ तक यह वायु जाती है। कंठ के बाद में वह वायु नीचे उतरती ही नहीं। इसीलिये मैं कह रहा हूँ ، नाभि तक सांस लेना चाहिये ، क्योंकि नाभि तक सांस लेंगे ، तो पूरे शरीर में स्वच्छ वायु का संचरण होगा और मूलाधार जाग्रत होगा। मूलाधार जाग्रत करने के लिये कुछ फोर्स तो लगाना ही पड़ेगा।
आपने सपेरे को देखा होगा، जब सांप कुण्डली मारकर बैठ जाता है। तो सपेरा बीन बजाता है और यदि फिर भी नहीं उठता है، तो वह हाथ से छेड़ता है، तब सांप फन फैला करके खड़ा होता है। इसी प्रकार वह कुण्डलिनी भी सुप्तावस्था में है ، इसलिये उसको छेड़ने की जरूरत है आप उसे धक्का देंगे ، फोर्स से सांस द्वारा और कोई तरीका है ही नहीं। आप सांस इतनी गहराई से लें कि नाभि में स्थित जो चक्र हैं، सीधा उस पर धक्का लगे और जब धक्का लगेगा तो वह अपने आप जाग्रत होगा ही।
सबसे पहले कठिन क्रिया यही है ، कि हम धक्का लगायेंगे ، जोर से सांस लेने और छोड़ने की क्रिया से ، इसको भस्त्रिका कहते हैं और पहली बार जब आप सांस जोरों से लेंगे ، तो कंठ में से दुर्गन्ध युक्त वायु निकलेगी। . पूरे फोर्स के साथ बाहर निकालें। इसलिये हमारे पूर्वजों ने कहा है कि सुबह उठकर गहरी सांस लेनी चाहिये। गहरी सांस लेने का मतलब है، कि अन्दर तक पहुँच सके، मगर पहुँच नहीं पा रही है، पहुँच नहीं पा रही सैकड़ों प्रकार प्रकार बीमारियां हैं और तो अपने आप में मृत्यु है।
यदि व्यक्ति को कुण्डलिनी जागरण का ज्ञान हो ، सीधा नाभिस्थल तक पहुँचने का ज्ञान हो ، तो फिर उसको मृत्यु रूपी रोग का आभास नहीं हो सकता। इसलिये इतने फोर्स से सांस बाहर निकालें कि ऐसा लगे ، जैसे सीना फट जायेगा और उतनी ही जोर से सांस को वापिस खींचें। इन दोनों क्रियाओं को निरन्तर करने से एक स्टेज ऐसी आती है कि कुण्डलिनी जाग्रत होकर खड़ी हो जाती है। यह कोई ऐसी विशेष कठिन क्रिया नहीं है। आवश्यकता इस बात की है कि हम अपने पेट को पूरा खाली कर दें। इस भस्त्रिका से पूर्व पेट को खाली करने के दो तरीके हैं، एक तरीका तो यह है कि व्यक्ति को भोजन कम करना चाहिये। यदि व्यक्ति अनाज खाना छोड़ दे तो व्यक्ति मर नहीं जायेगा ، यह गारण्टी की बात है। वह आटा खाता है، इसलिये मर जाता है। जो व्यक्ति केवल वनस्पति पर रहता है، वह अधिक जीवित रहता है।
अब आप कहेंगे ، आपने यह सलाह तो दे दी ، पर भूख लग जाती है ، उसका क्या करें؟ तो मैं कहता हूँ ، कि आटा कम खाना चाहिये और भोजन करने से पहले पानी ज्यादा पी लें। पानी ज्यादा पी लेंगे، तो फिर भूख कम लगेगी और आप कम रोटी खा सकेंगे। इसलिये पेट में ज्यादा फालतू का सामान नहीं जाये और जो हो ، पहले उसे पचा लें। दूसरी जो क्रिया है ، उसमें शवासन में लेटकर पांवों को छः इंच ऊपर उठा लें ، तो आप देखेंगे ، कि पैरों में खिंचाव महसूस हो रहा है। केवल एक-दो मिनट में ही ऐसा लगेगा कि अन्दर का सारा प्रदेश फट रहा है। जितना भी पेट में स्टोरेज है उसके टूटने की ، विखंडन कि क्रिया होगी और धीरे-धीरे जो चर्बी है ، जिसको मांस पिंड कहा जाता है ، वह अपने आप में गलेगा। शरीर को तो चाहिये ही ، ऊर्जा अब या तो आप रोटी के द्वारा दे देंगे ، नहीं तो जो जमा है ، उससे शरीर प्राप्त करता रहेगा। जब पेट अपने आप में दबेगा، तब आप जो सांस लेंगे वह सीधा ही नांभि तक पहुँचेगा।
दूसरा आसन है कि आप सीधे बैठ कर के पेट को बहुत अंदर खींचें ، गहरी सांस छोड़ करके ऐसे कि जैसे पीठ से चिपक जाय ، क्योंकि आपने अंदर से दीवारें बहुत मजबूत की हुई है।
इन तीनों क्रियाओं के माध्यम से मूलाधार जागरण की क्रिया प्रारम्भ होती है और कुण्डलिनी जागरण का विशेष मंत्र، भस्त्रिका के बाद में उच्चारण करने से भी अंदर की सारी गन्दगी गैस चर्बी है फालतू है वह ऊर्जा के माध्यम से जल्दी से जल्दी पिघल करके साफ हो जाता है और फिर कुण्डलिनी जागरण प्रारम्भ हो जाता है। ये दोनों का मूल भेद है، जिसके माध्यम से व्यक्ति कुण्डलिनी जागरण कर सकता है।
مانترا سيدي - بلوغ الكمال
मैंने आपको कुण्डलिनी जागरण के बहुत सरल ، सामान्य से नियम बताये हैं ، न मैं इसकी पेचीदगी में गया और न ही यह बताया ، कि कुण्डलिनी क्या है؟ कुण्डलिनी का माया से क्या सम्बन्ध है؟ इससे तुम्हारा कोई मतलब नहीं है ، क्योंकि जब तुमने उस साधना को समझा है ، जिसके माध्यम से पूरा शरीर अपने आप में चैतन्य किया जाता है ، तो मैट्रिक की परीक्षा देने की कोई आवश्यकता नहीं है।
क्रिया योग के माध्यम से भी पूरी कुण्डलिनी जाग्रत होती है، जिसकी कुण्डलिनी जाग्रत होती है، वह अपने आप में ही तीन कलाओं से ऊपर उठ जाता है और प्रयत्न करके आपको सोलह कलाओं तक पहुँचना है। सोलह कलाओं तक पहुँचने के लिये प्रयत्न यह करना है ، कि सबसे पहले एक योग्य गुरू की खोज करनी है।
'चेतना सिद्धि' ، प्राणमय सिद्धि '، ब्रह्मवर्चस्व सिद्धि' और तांत्रोक्त गुरू सिद्धि 'ये चार कुण्डलिनी जागरण और पूर्णता प्राप्त करने के आयाम हैं ، - इनका तात्पर्य क्या है؟
चेतना सिद्धि का तात्पर्य है- पूरे शरीर को चैतन्य करने की क्रिया। यदि हमारा शरीर चैतन्य होगा तो हम कुण्डलिनी जागरण कर सकेंगे ، शरीर चैतन्य होगा तो हम जीवन में रोग रहित हो सकेंगे ، शरीर चैतन्य होगा तो हम क्रिया योग की ओर अग्रसर हो सकेंगे। उन जड़ शरीर को चेतना युक्त बनाने के लिये 'चेतना सिद्धि यंत्र' को सामने रखकर नित्य एक माला मंत्र जप 'स्फटिक माला' से किया जाना चाहिये। यह मंत्रात्मक प्रयोग है، मंत्रत्मक प्रयोग के माध्यम से भी क्रिया योग हो सकता है। चेतना मंत्र यहां स्पष्ट कर रहा हूँ-
इसका यदि आप निरन्तर एक माला मंत्र जप करते हैं तो आपका पूरा शरीर चैतन्य होता ही है। इसकी पहचान कैसे होगी؟ यदि आपकी स्मरण शक्ति कमजोर है तो आपकी स्मरण शक्ति अपने आप ही तीव्रता की ओर अग्रसर होगी। एकदम से आपको नई चेतना ، नये विचार ، नई भावनायें ، नई कल्पनायें प्राप्त हो सकेंगी- इसको चेतना प्रयोग कहा जाता है।
दूसरी प्राणमय सिद्धि، जब शरीर चैतन्य हो जाय तो उससे प्राण संस्कारित करने पड़ते हैं। यद्यपि हमारे शरीर में जीव संस्कारित है، यह जीवात्मा है और हम परमात्मा होना चाहते हैं। प्राणों का संचार करना एक अलग चीज है ، जीवन का संचार तो भगवान ने किया ही है। इस शरीर में जो कुछ है، केवल आत्मा है और वह जीवमय है। इस 'प्राणमय यंत्र' को सामने रखकर इक्कीस बार प्राणश्चेतना मंत्र उच्चारण करना चाहिये और प्राणश्चेतना मंत्र है-
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أمنحك البركات الكاملة حتى تصل إلى الكمال من خلال أخذ تلمذتك نحو المرتفعات. بارك الله يبارك
परम् पूज्य सद्गुरूदेव
السيد كايلاش شريمالي
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