पूर्णता और दिव्यता की पावन भूमि का ही नामान्त है सिद्धाश्रम، जहाँ पहुँचने की साधना हर तपस्वी، ऋषि، मनीषी अपने मन में संयोजे रखता है। . अपनी भावी पीढि़यों के जीवन की सर्वतोगामिनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है।
- मोटे पोखरों से पानी की आशा लिये भटकते रहते हो। '
अभी तो चेत जाओ— ये बहुचर्चित चमत्कार दिखाने वाले तथाकथित गुरू तुम्हें कुछ भी नहीं दे सकते— देंगे तो ये तब ، जब उनके पास कुछ होगा। उनकी खुद की झोली फटी है ، वे तुमको क्या देंगे—؟
हम योगियों और सन्यासियों को वास्तव में तुम लोगों की बुद्धि पर हंसी आती है। . कि ये कैसे लोग हैं ، जो ऐसी देवगंगा के समीप रह कर भी अपवित्र के अपवित्र ही हैं ، विकारों से युक्त हैं।
मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं है، जिनमें कायरता हो، विरोध सहने की क्षमता न हो، जो जरा सी विपरित स्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हैं। मुझे तो वे शिष्य प्रिय हैं، जिनमें बाधाओं को ठोकर मारने का हौसला होता है विपरित परिस्थितियों पर छलांग मेरी आज्ञा का रूप से क्रिया करते हैं को झटक कर भी मेरी आवाज सुनते हैं और ऐसे शिष्य، स्वतः मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं، उनका नाम स्वतः ही मेरे होठों से उच्चारित होने लगता है और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं।
पूर्णता तो तब सम्भव होती है ، जब शिष्य गुरू के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोये ، अपने को पूर्ण विसर्जित करे ، उसका हृदय गद्गद् हो जाये ، गला भर जाये और रूंधे हुये गले से जो कुछ शब्द निकले ، तो 'गुरूदेव 'शब्द ही निकले।
समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं हो सकता और न ही गुरू की आरती उतारने से आ सकता है। समर्पण का तात्पर्य है कि गुरू जो आज्ञा दे ، उसका बिना नानूच किये पालन किया जाये।
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