अर्थात् गृहस्थ के बाद वानप्रस्थ ग्रहण करना चाहिये। इससे समस्त मनोविकार दूर होते है और वह निर्मलता आती है जो सन्यास के लिये आवश्यक है। यो तो शास्त्रें ने इस संस्कार का समय आयु का 50-51वां वर्ष माना है। मनु स्मृति ने इस संबंध में बहुत उचित व्यवस्था दी
अर्थात् जब गृहस्थ के शरीर पर झुर्रियां पड़ जायें ، बाल सफेद हो जाये ، पुत्र के भी पुत्र हो जाये ، तो गृहस्थ को जितेन्द्रिय होकर अग्निहोत्र की सामग्री लेकर ग्राम नगर से निकलकर वन में चले जाना चाहिये। यदि पत्नी साथ चलना चाहे तो उसे साथ ले लेना चाहिये ، अथवा पुत्र के संरक्षण में छोड़ देना चाहिये।
प्राचीन ऋषियों ने इस संस्कार का विधान बहुत सोच विचार कर किया था। पचास पचपन वर्ष की आयु में इन्द्रियाँ शिथिल होने लगती है। परिवार के प्रति अपने कर्तव्यों को व्यक्ति अधिकांशतः पूर्ण कर लेता है। अतः तब उसे लोभ، मोह आदि को त्यागने का उपाय करना चाहिये। वानप्रस्थ संस्कार समाज के विकास के लिये अति आवश्यक है।
प्राचीन समय में वानप्रस्थ संस्कार के बाद व्यक्ति वन में रहकर धीरे-धीरे काम ، क्रोध ، मोह आदि से मन को हटाता हुआ अध्यात्म की ओर प्रवृत्त हो जाता था और ईश्वर चिन्तन में ध्यान लगाता था। समाज निर्माण और समाज में फैली कुरीतियों को दूर करने का जिम्मा वानप्रस्थी और साधु सन्यासियों पर ही था। अपने जीवन काल में व्यक्ति जो भी सीखता था उसे वानप्रस्थ संस्कार लेने के बाद युवा पीढ़ी को भी सीखाता था।
अन्य संस्कारों की भांति इस संस्कार को भी पूजा पाठ के साथ सम्पन्न किया जाता है। इसके लिये वानप्रस्थ ग्रहण करने वाले व्यक्ति को पीले रंग के वस्त्र पहनाये जाते है। आवश्यक हो तो पीले रंग का यज्ञोपवीत भी धारण करवाया जाता है। पीला वस्त्र लिया जाता है जिसमें पवित्र पुस्तक، वेद आदि होते है، उनकी पूजा की जाती है। वानप्रस्थी को सर्वप्रथम स्नानादि के पश्चात् पीले वस्त्र धारण करने चाहिये इसके बाद संस्कार के स्थल पर आसन ग्रहण के समय पुष्प अक्षत से मंगलाचरण बोला जाता है। वानप्रस्थी को संस्कार के महत्त्व व उसके दायित्वों के बारे में उपदेश दिया जाता है। इस प्रक्रिया के पश्चात् संकल्प करवाया जाता है और तिलक व रक्षासूत्र बंधन कर उपचार किये जाते है। . दायित्वों का निर्वाह करेगा।
في هذا الوقت يتم اتخاذ القرار التالي.
इसके पश्चात् वानप्रस्थी अपना ज्ञान व समय उच्च आदर्शो के अनुरूप जीवन ढ़ालने، समाज में निरंतर सद्ज्ञान، सद्भाव एवं लोकोपकारी रचनात्मक सत्प्रवृत्तियां बढ़ाने तथा कुप्रचलनों، मूढ़ मान्यताओं आदि के निवारण हेतु कार्यो में व्यतीत करते है। जो सम्पूर्ण मानवजाति के लिये एक वरदान स्वरूप कार्य करते है।
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