शिष्य और गुरू एक ही शब्द है ، दो अलग-अलग शब्द नहीं हैं और न इनमें भेद किया जा सकता है।
आध्यात्म जीवन की ऐसी पगडंडी है، एक ऐसा रास्ता है जिस पर गुरू के प्रति समर्पण एवं श्रद्धा के सहारे ही चला जा सकता है। यहां पर दूसरी कोई युक्ति काम नहीं करती।
शिष्य तभी पूर्ण होगा जब अपने आप में कुछ रखें नहीं ، सब गुरू चरणों में न्यौछावर कर दें। खाली दिये में तेल भरा जा सकता है ، जो पहले से भरा हुआ है ، अभिमान ، क्रोध ، घमण्ड ، लोभ ، मोह से उसमें किसी भी प्रकार ज्ञान रूपी तेल की बूंद नहीं डाली जा सकती।
यह शिष्य धर्म है कि वह जीवन के अंतिम क्षण तक सवेष्ट، चौबीस घंटे، प्रत्येक क्षण गुरू सेवा में व्यतीत करें। ऐसा ही जीवन जीने पर किसी भी प्रकार की साधना में पूर्णता प्राप्त हो सकती है ، उच्च से उच्च दीक्षा प्राप्त हो सकती है।
इस रास्ते पर न आशा चलती है، न आज्ञा उल्लंघन चलता है، न निम्न पात्रता चलती है، न न्यूनता चलती है और न समर्पण में किसी प्रकार की कमी चलती है। ऐसा ही जीवन का दृढ निश्चय हो और दृढ़ निश्चय ही न हो، यह क्रियान्वित भी हो तभी आप जीवन में चीज प्राप्त कर पायेंगे जो कि पूर्णता का सूचक है।
إذا كان هناك تفاني وإيمان كاملان في المعلم ، فإن المعلم يصبح ملزمًا بإعطاء النجاح للتلميذ. ثم لا يمكن أن يفشل التلميذ تحت أي ظرف من الظروف لأن المعلم نفسه يتحمل مسؤولية نجاحه على عاتقه.
जब शिष्य पूर्ण समर्पण करता है तो वह गुरू से एकाकार हो जाता है तथा गुरू की समस्त शक्तियां उसे ऊपर उठाने की प्रयत्नशील प्रयत्नशील जाती है
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