. है।
जब गुरू हृदय में स्थापित है तो कुछ अन्य हृदय में प्रवेश कर ही नहीं सकता। फिर बाहर की दूषित हवा ، दूषित वृत्तिया शिष्य पर हावी नहीं हो सकती क्योंकि गुरू रूपी अमृत निरंतर उस विष को अमृतमय बनाता ही रहता है। शिष्य के हृदय पटल पर एक नाम अंकित हो-गुरू! उस के मुख पर एक ही शब्द हो गुरू।
गुरू से बड़ा मित्र ، गुरू से श्रेष्ठ सलाहकार ، गुरू से अच्छा मार्गदर्शक और गुरू से अच्छा स्वजन शिष्य को कोई अन्य प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि गुरू बिना स्वार्थ के चिंतन करता है ، आज्ञा देता है। इसलिये शिष्य को सदा गुरू के शब्दों का पालन करना ही चाहिये। वहीं उसके लिये श्रेयष्कर है، श्रेष्ठ है।
जीवन का मूलभूत तात्पर्य ही विरह है और विरह के माध्यम से ही एक शिष्य पूर्ण रूप से अपने गुरू में आत्मसात् हो सकता है। गुरू तक पहुँचने के लिये शिष्य के अन्दर एक वेग، एक तीव्रता होनी चाहिये، मन में एक ज्वार होना चाहिये कि उठूं और मिल जाऊँ।
हजारों लाखों व्यक्तियों में कोई विरला होता है जो सद्गुरू की अंगुली पकड़कर आगे बढ़ता है ، जो उनकी वाणी को समझ सकता है ، वही शिष्यत्व के गुण प्राप्त कर सकता है।
لا يمكن شراء معرفة المعلم بأي شكل من الأشكال. لا يمكن الحصول على المعرفة الحقيقية والفرح إلا من خلال نعمة المعلم ، لذلك يجب على المرء دائمًا أن يظل أمام المعلم بتواضع.
यथा संभव व्यर्थ की चर्चाओं में न पड़कर गुरूदेव का ही ध्यान ، मनन करे। दूसरे की आलोचना अथवा निन्दा करने से शिष्य का जो बहुमूल्य समय अपने कल्याण में लगाना चाहिये ، वह व्यर्थ हो जाता है ، उसका प्रभाव उसके द्वारा की गई साधनाओं पर भी पड़ता है।
गुरू के पास बैठे रहने मात्र से ही साधक के हृदय में ज्ञान का प्रकाश होने लगता है जिसको ब्रह्म प्रकाश कहा गया है ، जिससे मन के समस्त प्रकार के भ्रम व चिन्तायें स्वतः ही भाग जाती है। अतः शिष्य को चाहिये कि वह गुरू की निकटता के लिये निरन्तर प्रयत्न करे। जिस प्रकार एक दीपक से दूसरा दीपक पास लाने मात्र से ही जल जाता है ، उसी तरह गुरू के सानिध्य मात्र से ही शिष्य का कल्याण हो जाता है।
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