प्रार्थना में जुड़े हुये हाथ भी संसार की ही मांग करते हैं। यज्ञ की वेदी के आस-पास घूमता हुआ साधक या याचक भी पत्नी मांगता है ، पुत्र मांगता है ، धन मांगता है ، यश ، राज्य सम्राज्य मांगता है। असल में जिसके चित्त में संसार है उसकी प्रार्थना में संसार ही होगा। जिसके चित्त में वासनाओं का जाल है उसके प्रार्थना के स्वर भी उन्हीं वासनाओं के धुयें को पकड़ कर कुरूप हो जाते हैं। ! जब कहते हैं ، संसार की वस्तुओं की कोई चाह नहीं ، तो खयाल उठ सकता है कि मोक्ष की वस्तुओं की चाह तो हो सकती है न! नहीं मांगते संसार को، नहीं मांगते धन को، नहीं मांगते वस्तुओं को। मांगते है शांति को، आनंद को। छोडे़، इन्हें भी नहीं मांगते है प्रभु के दर्शन को، मुक्ति को، ज्ञान को। ईश्वर को पुकारा गया है बहुत नामों से। अनेक-अनेक संबंध मनुष्य ने ईश्वर के साथ स्थापित किये हैं। कहीं ईश्वर को पिता ، कहीं माता ، कहीं प्रेमी ، कहीं मित्र ، कहीं कुछ और ऐसे बहुत-बहुत संबंध आदमी ने परम सत्य के साथ स्थापित करने की कोशिश की है। इसे थोड़ा समझ लेना आवश्यक है। यह बड़ी अंतर्दृष्टि है। परमात्मा को हम प्रेम से पिता، माता पुकार सकते हैं، लेकिन उसे पुकारने में समझ कम और नासमझी ज्यादा है। परमात्मा से हम काई भी संबंध स्थापित करें वह नासमझी का है। क्यो؟ क्योंकि संबंध में एक अनिवार्य बात है कि दो की मौजूदगी होनी चाहिये ، संबंध बनता ही दो से है। मैं हूँ، मेरे पिता हैं तो दोनों का होना जरूरी है। मैं हूँ या मेरी माँ है، तो दोनो का होना जरूरी है، तो परमात्मा से फिर कोई संबंध कभी स्थापित नहीं सकता क्योंकि परमात्मा से तो मिलन ही तब होता है जब दो मिट जाते हैं और एक रह जाता है।
कबीर ने कहा है- 'खोजने निकला था، बहुत खोज की और तुझे नहीं पाया। खोजते-खोजते खुद खो गया तब तू मिला। ' वह खोजने निकले थे वह जब तक था ، तब तक उनसे कोई मिलन न हुआ और जब खोजते-खोजते तू तो न मिला ، लेकिन खोजने वाला खो गया ، तब तुझसे मिलना हुआ। इसका तो मतलब यह हुआ कि मनुष्य का परमात्मा से मिलना कभी भी नहीं होता है। क्योंकि जब तक मनुष्य रहता है، परमात्मा नहीं होता और जब परमात्मा होता है तो मनुष्य नहीं होता। दोनों का मिलना कभी नहीं होता। इसलिये इस जगत में जितने सम्बन्ध है، उनमें से कोई भी सम्बन्ध हम परमात्मा पर लागू करके भूल करते हैं। पिता से मिला जा सकता है बिना मिटे ، माता से मिला जा सकता है बिना मिटे ، मिटना कोई शर्त नहीं है। लेकिन परमात्मा से मिलने की बुनियादी शर्त है मिट जाना। सम्बन्ध होता है दो के बीच और परमात्मा से संबंध होता है तब ، जब दो नहीं होते। इसलिये संबंध बिल्कुल उल्टा है। उस अस्तित्व की और गहनता में और गहराई में प्रवेश करना हो तो कुछ और निषेध भी समझ लेने जरूरी हैं।
कल हमने समझा ، शरीर नहीं हूँ मैं ، इद्रियाँ नहीं हूँ ، मन नहीं हूँ ، बुद्धि नहीं हूँ ، चैतन्य हूँ। लेकिन उससे भी सूक्ष्म आवरण है और वे सूक्ष्म आवरण सिफऱ् समीप होने के कारण निर्मित हो जाते हैं। चैतन्य، जो भी उसके समीप होता है، उसे आपूरित कर देता है। जैसे प्रकाश، जो भी समीप होता है، उसे प्रकाशित कर देता है। दीया जलाया हमने ، जलते ही दीये के जो भी उस दीये के घेरे में पड़ जाता है ، सब प्रकाशित हो जाता है।
ऐसी ही चेतना जो हमारे भीतर है، उसके जो भी निकट है वह सभी प्रकाशित हो जाता है। उस प्रकाशित होने में ही कठिनाई शुरू होती है। अगर दीये को भी होश आ जाये नहीं था، अंधेरा था، तब कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था फिर दीया जला में भी चेतना जो-जो प्रकाशित है वह भी मैं ही हूँ। . स्वभावतः، सीधा तर्क है कि मेरे होने में ही इनका होना भी समाया हुआ है। चैतन्य का भी अनुभव यही है، चैतन्य अगर नहीं होता तो न शरीर होता، न मन होता، न बुद्धि होती، न इंद्रियाँ होती है कुछ भी नहीं होता، चैतन्य के अविर्भाव के साथ ही सब होता है। चैतन्य अगर बेहोश हो जाये، गहन निद्रा में खो जाये، तो भी शरीर का पता नहीं चलता फिर बुद्धि का कोई पता नहीं चलता। चैतन्य जिस चीज को भी प्रकाशित करता है ، उस चीज से समीपत्व के कारण एकता अनुभव होती है ، निकटता के कारण लगता है। यही हमारी सारी भूल है और फिर जिससे हम अपने को एक समझ लेते हैं उसी तरह का हम व्यवहार करने लगते हैं।
जीवन में जो भी पाने योग्य है، वह जीवन में ही पाया जा सकता है। लेकिन बहुत लोग मृत्यु के बाद प्रतीक्षा करते रहते हैं। बहुत लोग सोचते है कि देह में، जीवन में، संसार में रहकर कैसे पाया जा सकता है सत्य को، ब्रह्म को، मुक्ति को! लेकिन जो जीवन में नहीं पाया जा सकता वह कभी भी नहीं पाया जा सकता है।
जीवन तो एक अवसर है पाने का، चाहे पत्थर जुटाने में समाप्त कर दें और चाहे परमात्मा को पाने में। जीवन तो बिल्कुल तटस्थ अवसर है। जीवन आपसे कहता नहीं، क्या पायें। कंकड़-पत्थर बीनें ، व्यर्थ की चीजें संग्रहीत करें ، अहंकार को बढ़ाने में ، अहंकार को फुलाने में समाप्त कर दे ، जो जीवन रोकेगा नहीं कि मत करें ऐसा और चाहें तो सत्य को ، स्वयं को ، जीवन की जो आतंरिक गहराई है उसको पाने में लगा दें ، तो भी जीवन बाधा नहीं डालेगा कि मत करें ऐसा जीवन सिर्फ अवसर है तटस्थ ، जो भी उपयोग करना चाहें कर लें। जीवन को केवल वहीं उपलब्ध होते हैं जो स्वयं के और सर्व के भीतर परमात्मा को अनुभव कर लेते हैं। इस अभाव में हम केवल शरीर मात्र हैं और शरीर जड़ है जीवन नहीं। स्वयं को जो शरीर मात्र ही जानता है ، वह जीवित होकर भी जीवन को नहीं जानता है।
जीवन की अनादि ، अनंत धारा से अभी उसका परिचय नहीं हुआ और उस परिचय के अभाव में जीवन आनंद नहीं हो पाता है। आत्म-अज्ञान ही दुःख है आत्म ज्ञान हो तो मनुष्य का हृदय आलोक बन जाता है ، और वह न हो तो उसका पथ अंधकारपूर्ण होगा ही।
एक आकाश، एक स्पेस बाहर है، जिसमें हम चलते हैं، उठते हैं، बैठते हैं، जहाँ भवन निर्मित होते हैं और जहाँ पक्षी उड़ते हैं। यह आकाश हमारे बाहर है। किंतु यह आकाश जो बाहर फैला है، यही अकेला आकाश नहीं है। एक और भी आकाश है، वह हमारे भीतर है। जो आकाश हमारे बाहर है वह असीम है। वैज्ञानिक कहते हैं، उसकी सीमा का कोई पता नहीं लगता। लेकिन जो आकाश हमारे भीतर फैला है، बाहर का आकाश उसके सामने कुछ भी नहीं है। कहें कि वह असीम से भी ज्यादा असीम है। अनंत आयामी उसकी असीमता है। बाहर के आकाश में चलना-उठना होता है ، भीतर के आकाश में जीवन है। बाहर के आकाश में क्रियायें होती हैं، भीतर के आकाश में चेतन्य है।
जो बाहर के ही आकाश में खोजता रहेगा वह कभी भी जीवन से मुलाकात न कर पायेगा। उसकी चेतना से कभी भेंट न होगी। उसका परमात्मा से कभी मिलन न होगा। ज्यादा से ज्यादा पदार्थ मिल सकता है बाहर ، परमात्मा का स्थान तो भीतर का आकाश है ، अंतर-आकाश है। जीवन के सत्य को पाना हो तो अंतर-आकाश में उसकी खोज करनी पड़ती है। लेकिन हमें अंतर-आकाश कोई भी अनुभव नहीं है। हमने कभी भीतर के आकाश में कोई उड़ान नहीं भरी है हमने भीतर के आकाश में एक चरण भी नहीं रखा है ، हम भीतर की तरपफ़ गये ही नहीं। हमारा सब जाना बाहर की तरफ है। हम जब भी जाते हैं बाहर ही जाते हैं। इस अंतर-आकाश के संबंध में उसे भी समझ लेना उपयोगी है। यह प्रश्न सदा ही साधक के मन उठता है मेरा है तो यह अशुद्धि कहां से आ जाती है؟ और जब मैं स्वभाव से अमृत तो मृत्यु कैसे घटित होती है؟ और जब भीतर कोई विकार ही नहीं है ، निर्विकार ، निराकार का आवास है सदा से ، सदैव से ، तो ये विकार के बादल कैसे घिर जाते हैं؟ कहा से इनका जन्म होता है؟ कहां इनका उद्गम है؟ इसे समझने के लिये थोड़ी सी गहराई में जाना पड़ेगा। पहली बात तो यह समझनी पड़ेगी कि जहां भी चेतना है वहां चेतना की स्वतंत्रताओं में एक स्वतंत्रता यह भी है कि वह अचेतन हो सकेगी। ध्यान रखे अचेतन का अर्थ होता है ، चेतन ، जो कि सो गया चेतन ، जो कि छिप गया! यह चेतना की ही क्षमता है कि वह अचेतन हो सकती है। जड़ की यह क्षमता नहीं है। आप पत्थर को यह नहीं कह सकते कि तू अचेतन है। जो चेतन नहीं हो सकता वह अचेतन भी नहीं हो सकता।
ध्यान रखें ، जो सो नहीं सकता वह जागेगा कैसे؟ चेतना की ही क्षमता है अचेतन हो जाना। अचेतन का अर्थ होता है ، चेतन ، जो कि सो गया। चेतन، जो कि छिप गया! यह चेतना की ही क्षमता है अचेतन हो जाना। अचेतन का अर्थ चेतना का नाश नहीं है। अचेतन का अर्थ है ، चेतना का प्रसुप्त हो जाना ، छिप जाना ، अप्रकट हो जाना। चेतना का मतलब है कि चाहे तो प्रकट हो ، चाहे तो अप्रकट हो जाये। यही चेतना का स्वामित्व है या कहें، यही चेतना की स्वतंत्रता है। अगर चेतना अचेतन होने को स्वतंत्र न हो तो चेतना परतंत्र हो जायेगी। फिर आत्मा की कोई स्वतंत्रता न होगी।
इसे ऐसे समझें कि अगर आपको बुरे की स्वतंत्रता ही न हो तो भले होने का अर्थ क्या होगा؟ अगर आपको बेईमान होने की स्वतंत्रता ही न हो तो आपके ईमानदार होने का कोई अर्थ नहीं होता है। जब भी हम किसी व्यक्ति को कहते हैं कि वह ईमानदार है तो इसमें निहित है ، कि वह चाहता तो बेईमान हो सकता था ، पर नहीं हुआ। अगर हो ही न सकता हो बेईमान तो ईमानदारी का कोई मतलब नहीं होता। ईमानदारी का मूल्य बेईमान होने की क्षमता और संभावना में छिपा है।
एक अंधेरी रात की भांति है तुम्हारा जीवन ، जहाँ सूरज की किरण तो आना असंभव है ، मिट्टी के दिये की छोटी सी लौ भी नहीं है। . इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूँ، तो आदमी खोजता है، तड़पता है प्रकाश के लिये، प्यास जगती है، टटोलता है، गिरता है، उठता है، मार्ग खोजता है، गुरू खोजता है، लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले जब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन، तो फिर जीवन का द्वार बंद ही हो गया।
एक पुरानी कथा है। एक सम्राट को ज्योतिषियों ने कहा कि इस वर्ष पैदा होने वाले बच्चों में से कोई तुम्हारे जीवन का घाती होगा। सम्राट ने जितने बच्चे उस वर्ष पैदा हुये، सभी को कारागृह में डाल दिया، मारा नहीं। क्योंकि सम्राट को लगा कि कोई एक इनमें से हत्या करेगा और सभी की हत्या मैं क्यों करू यह महापाप हो जायेगा। छोटे-छोटे बच्चे बड़ी मजबूत जंजीरों में जीवन भर के लिये कोठरियों में डाल दिये गये। जंजीरों में बंधे- बंधे हुये ही वे बडे़ हुये। उन्हें याद भी न रही कि कभी ऐसा भी कोई क्षण था जब जंजीरें उनके हाथ में न रहीं हों। जंजीरों को उन्होंने जीवन के अंग की तरह ही पाया और जाना। उन्हें याद भी तो नहीं हो सकती थी ، कि कभी वे मुक्त थे। गुलामी ही जीवन थी और इसीलिये उन्हें कभी गुलामी अखरी नहीं क्योंकि तुलना हो तो तकलीपफ़ होती है। तुलना का कोई उपाय नहीं था। गुलाम ही वे पैदा हुये थे، गुलाम ही वे बड़े हुये थे। गुलामी ही उनका सार-सर्वस्व था तुलना नहीं था स्वतंत्रता की और दीवारो से बंधे थे।
उनकी आंखें अंधकार की इतनी अधीन हो गई थीं कि वे पीछे लौटकर भी नहीं देख सकते थे ، जहाँ प्रकाश का जगत था। प्रकाश कष्ट देने लगा था। अंधेरे से इतने राजी हो गये थे، कि अब प्रकाश से राजी नहीं हो पाती थी आँखें। सिर्फ अंधेरे में ही आँख खुलती थीं، प्रकाश में तो बंद हो जाती थीं। तुमने भी देखा होगा ، कभी घर में शांत स्थान से भरी दुपहरी में बाहर आ जाओं ، आँख तिलमिला जाती है। जो जीवन भर रहे हैं अंधकार में ، वे पीछे लौट कर भी नहीं देख सकते थे वे दीवार की तरफ ही देखते थे। राह पर चलते लोगों ، खिड़की द्वार के पास से गुजरते लोगों की छायायें बनती थीं सामने दीवार पर वे समझते थे ، वे छायायें सत्य हैं। यही असली लोग हैं उस छाया को ही जगत समझते थे। धीरे-धीरे उन्होंने पीछे लौट कर देखना ही बंद कर दिया। पीछे लौट कर देखने का मतलब यह था ، आँख में आंसू आ जायें वह पीड़ा का जगत था। तुमने भी सत्य को देखना बंद कर दिया है और जब भी कोई तुम्हें सत्य दिखा देता है तो पीड़ा होती है। जब भी कहीं कोई सत्य कह देता है तो कष्ट ही होता है।
लेकिन एक आदमी ने हिम्मत की क्योंकि उसे शक होने लगा ये छायायें ، छायायें नहीं हैं। क्योंकि इनसे बोलो तो ये उत्तर नहीं देतीं इन्हें छूओं तो कुछ भी हाथ में नहीं आता। इन्हें पकड़ो तो कुछ पकड़ में नहीं आता। उस आदमी ने धीरे-धीरे पीछे देखने का अभ्यास शुरू किया। वर्षों लग गये ، बड़ा कष्ट हुआ जब भी पीछे देखता ، आँखें तिलमिला जातीं थी ، आंसू गिरते लेकिन उसने अभ्यास जारी रखा धीरे-धीरे आँखे राजी होने लगीं और जब वह चकित हुआ ، कि हम किस काराग्रह में पडे़ हैं और हमने छायाओं को सत्य समझ लिया है। वह पीछे देखने में समर्थ हो गया ، उसकी गर्दन मुड़ने लगी और उसकी आँखें देखने लगी बाहर के रंग ، वृक्ष और वृक्षों में खिले फूल ، राह से गुजरते लोग। रंगीन थी दुनिया काफी। छायाये बिल्कुल रंगहीन थी ، उदास थी ، बाहर उत्सव था छायाओं में कोई उत्सव पकड़ में नहीं आता था। बच्चे नाचते गाते निकलते थे। छायाये तो बिल्कुल चुप थीं، वहाँ वाणी न थी। यहाँ पीछे छूपा हुआ असली जगत था।
उस आदमी ने धीरे-धीरे इसकी चर्चा दूसरे कैदियों से शुरू की। बाकी कैदी हंसने लगे، कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। हम तो सदा से यही सुनते आए है कि यह सत्य है، जो सामने है और हम तो पीछे मुड़ कर देखते है तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता، सिवाय अंधकार के، अब आँख बंद हो जाए तो सिवाय अंधकार के कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता नहीं है कि अंधकार हो। हो सकता है، सिर्फ आँख बंद हो जाती हो। लेकिन दोष कोई अपने ऊपर कभी लेता नहीं। तो कोई यह तो मानता नहीं कि मेरी आँख बंद हो सकती है ، इसलिए अंधकार है। लोग मानते है، अंधकार है، इसलिए अंधकार है। मेरी आँख और बंद हो सकती है؟ यह कभी संभव है؟ हम अपनी आँख तो सदा खुली मानते हैं। अपना हृदय तो सदा प्रेम से भरपूर मानते है। अपनी प्रज्ञा तो सदा प्रज्जवलित मानते हैं। अपनी आत्मा तो सदा जाग्रत मानते है और वही हमारी भ्रांतियों की जड़ है फिर कैदियों की संख्या बहुत थी ، वह अकेला था और लोग खूब हंसे ، खूब मजाक की उन्होंने। धीरे-धीरे उस आदमी को पागल मानने लगे।
जहाँ अंधों की भीड़ हो वहाँ आँखवाला पागल हो जाता है। जहाँ मुर्खों की भीड़ हो वहाँ बुद्धिमान पागल हो जाता है। जहाँ बीमारी स्वास्थ्य समझी जाती हो، वहाँ स्वस्थ आदमी का लोग इलाज कर देंगे पकड़ कर। स्वाभाविक है। क्योंकि लोग अपने को मापदंड समझते है और फिर जब बहुमत उनके साथ हो ، बहुमत ही नहीं ، सर्वमत उनके साथ हो ، उस एक आदमी को छोड़ कर सभी साथ थे ، तो संदेह ही कैसे पैदा हो؟ लोग हंसे، मजाक की، उसे पागल समझा، उसका तिरस्कार किया، उसकी उपेक्षा की، धीरे-धीरे लोगों ने उससे बातचीत बंद कर दी। क्योंकि वह बेचैनी पैदा करता था क्योंकि कभी-कभी संदेह उनके मन में भी उठ आता था कि हो न हो ، कही यह आदमी सच न हो। क्योंकि अगर यह आदमी सच है तो उनकी पूरी जिंदगी बेकार गई। बड़ा दांव है। यह आदमी गलत होना ही चाहिए। नहीं तो उनकी पूरी जिंदगी गलत होती और कोई भी आदमी नहीं चाहता कि उसकी पूरी जिंदगी गलत सिद्ध हो। क्योंकि इसका अर्थ हुआ तुमने यूं ही गंवाया। तुमने अवसर खो दिया। तुम मूढ़ हो، अज्ञानी हो، मूर्च्छित हो। अहंकार यह मानने को तैयार नहीं होता। अहंकार कहता है मुझसे ज्ञानी और कौन؟ मुझसे समझदार और कौन؟ ऐसे अहंकार रक्षा करता अज्ञान की। अहंकार रक्षक है، अज्ञान के ऊपर। उसके रहते अज्ञान का किला पराजित न होगा، तोड़ा न जा सकेगा।
धीरे-धीरे उन्होंने इसकी उपेक्षा कर दी، क्योंकि उससे बात करनी बेचैनी थी। क्योंकि वह हमेशा रंगो की बात करता، रंग उनमें से किसी ने भी देखे न थे। वह हमेशा पीछे चलनेवाले संगीत की बात करता। संगीत उनमें से किसी ने भी सुना न था। उनकी सब इन्द्रियाँ पंगु हो गई थी और धीरे-धीरे वह आदमी कहने लगा ، कि ये जंजीरे है जिनको तुम आभूषण समझे हुए हो। आखिर कैदी को भी सांत्वना तो चाहिये तो वह जंजीर को आभूषण समझ लेता है। आखिर कैदी को भी जीना तो है، तो काराग्रह को घर समझ लेता है। न केवल समझ लेता है बल्कि भीतर से सजा भी लेता है ، ताकि पूरा भरोसा आ जाए ، अपना घर है।
जंजीरों पर कैदियों ने फूल पत्तिया बना ली थी। जंजीरों को घिस-घिस कर वे साफ किया करते थे। क्योंकि जिसकी जंजीर जितनी चमकदार होती، वह उतना संपत्तिशाली समझा जाता था। जिसकी जंजीर जितनी मजबूत होती، वह उतना धनी समझा जाता था। जिसकी जंजीर जितनी वजनी होती، उसकी उतनी ही संपदा थी स्वभावतः। अगर जंजीर कमजोर होने लगे तो वे उसे सुधार लेते थे। क्योंकि जंजीर ही उनका जीवन थी और जंजीर को उन्होंने जंजीर कभी माना न था ، वह आभूषण था। वही तो एकमात्र सजावट थी उनके शरीर पर और तो कोई सजावट न थी ، धीरे-धीरे इस आदमी को समझ में आने लगा कि ये आभूषण नहीं ، जंजीरे है। क्योंकि उसे स्वतंत्रता के जगत की थोडी झलक मिलनी शुरू हो गई। एक किरण उतर आई अंधेरे में। सूरज का संदेश आ गया। अब इस अंधेरे घर में، इस अंधेरे कारागृह में रहना मुश्किल हो गया। धीरे-धीरे उसने जंजीर को तोड़ने की व्यवस्था कर ली।
असली सवाल तो भीतर की जंजीर का टूट जाना है। बाहर की जंजीर बहुत कमजोर है। अगर तुम बंधे हो، तो भीतर की जंजीर से बंधे हो। भीतर की जंजीर है، जंजीर को आभूषण समझना। एक बार उसे समझ में आ गया कि आभूषण नहीं है ، आधी तो मुक्ति हो ही गई। उसी दिन से उसने जंजीरों को घिसना बंद कर दिया ، साफ करना बंद कर दिया ، सजाना बंद कर दिया। लोग समझने लगे कि जीवन से उदास हो गया है। उदास हो गया बेचारा। उनके भाव में एक बेचारेपन की प्रतीति होती है। जिंदगी में हार गया। शायद पाया कि अंगूर खट्टे हैं। छलांग पूरी न हो सकी। कमजोर था। हम पहले से ही जानते थे कि कमजोर है। आज नहीं कल थक जायेगा और संघर्ष से अलग हो जायेगा। जंजीरें، जो कि आभूषण है، इनको सजाना बंद कर दिया। ऐसे ही वे सजाया रह रहा हैं आसपास की दीवार को साफ-सुथरा करना भी बंद कर दिया। अब पागलपन बिल्कुल पूरा हो गया है।
लेकिन उस आदमी ने धीरे-धीरे जंजीरे तोड़ने के उपाय खोज लिये। भीतर की जंजीर टूट जाए तो बाहर का कारागृह टूटा ही हुआ है। आधा तो गिर ही गया। बुनियाद तो हिल ही गई। पीछे के जगत का ، छिपे हुए जगत का संदेश आ जाए—— तब एक अनंत पुकार उसे पुकारने लगी। एक प्यास उसके रोएं-रोएं में समा गई-असली जगत में प्रवेश करना है। उसने जंजीरे तोड़ी। जब प्यास प्रगाढ़ हो، तो कमजोर से कमजोर आदमी शक्तिशाली हो जाता है। जब प्यास प्रगाढ़ न हो، तो कमजोर से कमजोर जंजीरें भी बड़ी मजबूत मालूम पड़ती हैं। प्यास बढ़ती चली गई। पीछे का जगत ज्यादा साफ होने लगा। आँख जितनी साफ होने लगी، उतना ही सत्य का जगत साफ होने लगा। एक दिन उसने जंजीरे तोड़ दीं और वह उस कारागृह से निकल भागा। वह नाच रहा था। सूरज، पक्षी، वृक्षों में खिले फूल! बस، वास्तविक लोग، छायायें नहीं।
एक भरोसा चाहिये। भरोसे का मतलब इतना ही है، कि जो मैंने नहीं जाना है वह भी हो सकता है। अगर तुम सोचते हो कि तुमने जो जाना है बस उतना ही है ، तब तो यात्रा का कोई सवाल ही नहीं है। संदेह का इतना ही अर्थ है، कि मुझ पर सत्य समाप्त हो गया। मैंने जो जान लिया، वही सत्य की भी सीमा है। मेरा अनुभव और सत्य समान है। यह संदेह है। श्रद्धा का अर्थ है، मेरा अनुभव छोटा है، सत्य बहुत बड़ा हो सकता है। मेरा छोटा आंगन है। आंगन पूरा आकाश नहीं। बड़ा आकाश है। इतना जिसे ख्याल आ जाए، जिसे संदेह पर संदेह आ जाए، वह श्रद्धावान हो जाता है। वह बड़े से बड़ा संदेह है، ध्यान रखना। जिसे संदेह पर संदेह आ जाए ، जो अपने संदेह की प्रवृति के प्रति संदिग्ध हो जाए ، उसके जीवन में श्रद्धा का आविर्भाव हो जाता है
श्रद्धा का अर्थ है، जानने को बहुत कुछ शेष है। मैंने थोड़े कंकड़-पत्थर बीन लिए हैं समुद्र के तट पर ، लेकिन इससे समुद्र का तट समाप्त नहीं हो गया। मैंने मुट्ठी भर रेत इकट्ठी कर ली है ، लेकिन सागर के किनारो पर अनंत रेत शेष है। मेरी मुट्ठी की सीमा है، सागर की सीमा नहीं है। मेरी बुद्धि की सीमा है، सत्य की सीमा नही। मैं कितना ही प्राप्त करूँ लेकिन पाने को सदा शेष रह जायेगा। यह तो अर्थ है परमात्मा को अनंत कहने का। तुम कितना ही पाओ، वह फिर भी पाने को शेष रहेगा। तुम पा-पा कर थक जाओगे، वह नहीं चुकेगा। तुम्हारा पात्र भर जायेगा، ऊपर से बहने लगेगा। लेकिन उसके मेघों से वर्षा जारी रहेगी। हम कण मात्र है। जब कण को ख्याल हो जाता है कि मैं सब कुछ हूँ ، वही श्रद्धा समाप्त हो जाती है।
श्रद्धा अज्ञात की तरफ पैर उठाने के साहस का नाम है। अनजान में प्रवेश ، अज्ञात में प्रवेश ، जहाँ मैं कभी नहीं गया ، जो मैं कभी नहीं हुआ ، वह भी हो सकता है। जब भी ज्ञान का जन्म होता है، तभी करूणा का जन्म हो जाता है। क्यों؟ क्योंकि अब तक जो जीवन ऊर्जा वासना रही थी वह कहाँ जाएगी؟ ऊर्जा नष्ट नहीं होती। अभी धन के पीछे दौड़ती थी، पद के पीछे दौड़ती थी، महत्त्वकांक्षाए थी अनेक। अनेक-अनेक तरह के भोगो की कामना थी، सारी ऊर्जा वहाँ संलग्न थी। प्रकाश के जलते ، ज्ञान के उदय होते वह सारा अंधकार ، वह भोग ، लिप्सा ، महत्वकांक्षा ऐसे ही विलीन हो जाते है ، जैसे दीये के जलते अंधकार। ऊर्जा का क्या होगा؟ जो ऊर्जा काम-वासना बनी थी ، जो ऊर्जा क्रोध बनती थी ، जो ऊर्जा ईर्ष्या बनती थी ، मत्सर बनती थी ، उस ऊर्जा का ، उस शुद्ध शक्ति का क्या होगा؟ वह सारी शक्ति करूणा बन जाती है। महाकरूणा का जन्म होता है और वह करूणा तुम्हारी काम-वासना से ज्यादा अदम्य होती है। क्योंकि तुम्हारी काम-वासना और बहुत सी वासनाओं के साथ हैं महत्वकांक्षा ، धन भी पाना है। तुम काम-वासना को स्थगित भी कर देते हो कि ठहर जाओ दस वर्ष ، धन कमा लेंगे ठीक से फिर शादी करेंगे। धन की वासना अकेली नहीं है। पद की वासना भी है। तुम पद पाने के लिए धन का भी त्याग कर देते हो। चुनाव में लगा देते हो सब धन، कि किसी तरह मंत्री हो जाओ। हजार कामनाएं है और सभी में ऊर्जा बंटी है लेकिन जब सभी कामनाएं शून्य हो जाती है ، सारी ऊर्जा मुक्त होती है। तुम एक अदम्य ऊर्जा के स्त्रोत हो जाते हो। एक प्रगाढ़ शक्ति! उस शक्ति का क्या होगा؟
जब भी आनंद का जन्म होता है، का आकाश मिलता है، तब तुम तत्क्षण पाते हो कि वे जो पीछे रह गये मुक्त करने में लग जाता हैं जो कारागृह में है ، उन्हें खुला आकाश देने में लग जाता है। जिनके पंख जंग खा गए है، उनके पंखों को सुधारने में लग जाता है कि वे फिर से उड़ सकें। जिनके पैर जाम हो गए है، उनके पैरों को फिर जीवन देने में लग जाता है। ताकि लंगडे़ चले और अंधे देखे और बहरे सुन सकें। तुम लगड़े हो। तुम चले नहीं। यात्रा तुमने बहुत की है लेकिन जब तक तीर्थयात्रा न हो ، तब तक कोई यात्रा यात्रा नहीं। तुम बहरे हो। तुमने सुना बहुत है ، लेकिन वासना के सिवाय कोई स्वर तुमने नहीं सुना और वासना भी भी संगीत है! वासना तो एक शोरगुल है जिसमें संगीत बिल्कुल ही नहीं है। वासना तो एक विसंगीत है، जिससे तुम तनते हो، चिंतित होते हो، बेचैन-परेशान होते हो। संगीत तो वह है जो तुम्हें भर दें उस अनंत आनंद से، जहाँ सब बेचैनी खो जाती है، जहाँ चैन की बांसुरी बजती है और ऐसी बांसुरी कि उसका फिर कभी अंत नहीं आता।
तुम अंधे हो। तुमने बहुत कुछ देखा है लेकिन जो देखा है वह सब ऊपर की रूपरेखा है। भीतर का सत्य तुम नहीं देख पाते। शरीर दिखता है، आत्मा नहीं दिखती। पदार्थ दिखता है، परमात्मा नहीं दिखता। दृश्य दिखाई पड़ता है، अदृश्य नहीं दिखाई पड़ता और अदृश्य ही आधार है दृश्य का। परमात्मा ही आधार है पदार्थ का और आत्मा के बिना क्षणभर भी तो शरीर जीता नहीं। फिर भी तुमने सिर्फ शरीर देखा है और आत्मा नहीं देखी। अंधे हो तुम، पंगु हो तुम। जिसके जीवन में समाधि खिलती है वह भागता है उनको जगाने ، जो सोये है। कुछ दिन तो उसने अपने को रोका।
क्योंकि वह जानता है कि वे लोग हंसेंगे। क्योंकि वह जानता है कि वे सुनेंगे नहीं। क्योंकि वह जानता है، कि जो सदा से हुआ है، वही फिर होगा। पत्थर और कांटों से स्वागत होगा، फूलमालाये मिलने को नहीं। लेकिन अदम्य है करूणा। उसे रोका नहीं जा सकता।
. जब भी कोई मरता है तो मन सोचता है ، मौत सदा दूसरे की होती है। आखिरी क्षण तक भी होश नहीं आता। अपने ही हाथ से आदमी अपने को समाप्त कर लेता है और जो भी तुम कर रहे हो उसका कोई भी अत्यधिक मूल्य नहीं है। ऐसी दशा मनुष्य की है उसे पता भी नहीं कि उसकी जड़े टूट गई हैं। उसे पता भी नहीं कि परमात्मा से उसका सम्बन्ध विच्छन्न हो गया। उसे पता भी नहीं कि जीवन के स्त्रोत से उसकी सरिता अलग हो गई है। किसी ने वृक्ष को काट गिराया है। वृक्ष कट गया है، लेकिन अभी हरा है अभी भी फूल खिले है، मुरझाने में समय लगेगा उसे पता नही कि जड़ों से सम्बन्ध टूट गया है उसे पता नहीं कि अब जमीन से कोई नाता न रहा। . आदमी तभी समझ पाता है، जब करने को समय ही नहीं रह जाता। अक्सर लोग मरने के समय में समझ पाते है कि जीवन व्यर्थ गया इसके पहले उन्हें समझाने की कितनी ही कोशिश करो ، उनकी समझ में नही आता। क्योंकि क्षुद्र में वे सार देखते रहते है और उन्हे यह भी भरोसा नही आता कि मौत आने वाली है। क्योंकि बुद्धि कहे जाती है और दूसरे मरते होंगे ، तुम तो कभी पहले मरे नहीं और जो कभी नहीं हुआ ، वह क्यों होगा؟ और जीवन को भरोसा नहीं आता कि मैं मृत्यु कैसे बन सकता हूँ। प्रकाश माने भी तो कैसे माने कि मैं अंधकार हो जाऊँगा! अमृत को समझाये भी तो कैसे समझाये कि तू भी जहर हो सकता है।
आप जब भी किसी को मरते हुये देखते है तो ऐसा लगता है، कोई दुर्घंटना हो गई न कि कोई जीवन का सत्य मृत्यु ऐसी लगती है ، जैसे होनी न थी और हो गई। जिस दिन जन्में، उसी दिन जड़े टूट गई। जिस दिन जन्में، उसी दिन पृथ्वी से नाता विच्छन्न हो गया। जिस दिन जन्में उसी दिन परमात्मा से दूर जाने की यात्रा शुरू हो गई। उसी दिन हम पृथक हो गये। पृथकता को अर्थ समझ लेना चाहिये। बच्चा जब पैदा होता है، एक क्षण पहले माँ का अंग था। अंग कहना भी ठीक नहीं क्योंकि उसे यह भी पता नहीं था कि मैं अंग हूँ। वह माँ के साथ एक था। यह भी हम सोच सकते हैं، उसे भी पता नहीं था कि मैं एक हूँ। क्योंकि एक होने का भी पता तब ही चलता है ، जब हम दो हो गये हों। दो हुयें बिना एक का भी तो ख्याल नहीं आता। बच्चा सिर्फ था होना परिपूर्ण था। फिर बच्चा पैदा हुआ माँ से विच्छन्न हुआ، जड़े टूटीं، जैसे किसी ने पौधा काट डाला।
जिसको हम जन्म कहते हैं ، वह माँ से दूर हटने की प्रक्रिया है और फिर जिसको हम जीवन कहते हैं ، वह रोज-रोज दूर हटते जाने का नाम है। पहले बच्चा माँ के गर्भ से अलग होता है ، लेकिन तब भी माँ के साथ उसका सम्बन्ध जुड़ा रहता है ، फिर वह सम्बन्ध भी टूट जायेगा। फिर भी वह माँ के आसपास घूमता रहेगा। लेकिन जल्द ही वह सम्बन्ध भी टूट जायेगा। ऐसे वह दूर जा रहा है और जितना दूर जायेगा उतना अहंकार मजबूत होगा। जितना माँ के पास था، उतना निरअहंकार भाव था। जब माँ के गर्भ में था، एक था، तो कोई अहंकार न था।
ज्योति जब मिल जाये तब अंधेरे का अंत हो जाता है प्रकाश के आते ही तिमिर टिक नही पाता ، सामना नहीं कर पाता प्रकाश का। क्यों، इसलिये कि प्रकाश की उपस्थिति उसके अस्तित्व को खंडित कर देती है। चुपके से अंधकार उस अवस्था की प्रतीक्षा में होता है कब दीप बुझ जाये और मैं स्वयं को प्रकट कर सकूं और ही होता है ، जब दीप बुझता है अंधेरा झटपट अपनी स्याह चादर से सबकुछ आवृत्त कर देता है। मन के किसी कोने में जब सत्य का दीप आलोक बिखेरता है، तब अज्ञान तिमिर छंटने लगता है और अभीप्सा के स्वर मुखरित होने लगते हैं। सत्य की पुकार जब अस्तित्व के किसी कोने को झंकृत करने लगती है ، तब स्वयं में एक सक्रिय रूपांतरण घटित होने लगता है। इसी सुखद अवसर में जब अभीप्सा पीड़ा बनने लगे और पीड़ा समाधान की दिशा में आतुर होकर अंगड़ाई ले ، तो संपूर्ण अस्तित्व प्रभु से भोगता हुआ हमारी संभावनाओं में प्राण फूंकने लगता है। अंत में सत्य-क्रांति के स्वर जाग्रत होने लगते है। ऐसे अवसर ही स्वयं को उस अद्भुत उपलब्धि में स्थिर करते हैं ، जहाँ स्वयं है। आश्चर्य है कि पीड़ा का समाधान स्वयं है।
समाधान में तृप्ति है। अस्तित्व का प्रत्येक कोना समाधान की ओर जब अग्रसर हो ، तब समाधान निकट होता है। चूक भी उन्हीं क्षणों में होती है ، जब निकटता हो। हाथ लगा समाधान बिखर जाता है ، पाया स्वबोध विलीन हो जाता है और फिर अभीप्सा और स्वयं की आतुरता में अस्तित्व होता है और सत्य के तार झंकृत होने लगते हैं। निकट आया और उपलब्ध हुआ 'स्वयं' कहां खो जाता है؟ जागरूकता के अभाव में चूक होती है।
किनारे आकर ही डूबने की आशंका बढ़ने लगती है। क्यों؟ क्योंकि किनारे की निकटता का बोध शिथिलता को जन्म देता है، पर कभी अधिक जागरूकता और किनारे पर ही गंतव्य है।
अपनी अभीप्सा की पीड़ा में، गहरी पीड़ा में परिवर्तन होने दो، छटपटाहट बढ़ने दो। यह छटपटाहट ही पर से स्व की ओर चेतना को आमंत्रण देगी और यात्रा पूर्णता की ओर विकसित होगी। अपने अन्दर में संलग्न चेतना के अंतर्मुख होना ही अस्तित्व की हलचल में गहरा होश स्वयं में प्रकट कर सकता है।
जागरूकता के अभाव में चेतना-प्रवाह नहीं होता है। एक क्षण की सावधानी स्वयं के सौंदर्य को चकित कर सकती है، परन्तु कुछ पल की असावधानी، बेहोशी और जड़ता जीवन भर कुंठन बन सकती है।
जागो، गहरी निद्रा से जागो। अस्तित्व तुम्हें आमंत्रण दे रहा है। पुकार، आत्म पुकार तुम में निरन्तर ध्वनित हो रही है। इस पुकार और अभीप्सा में तुम्हारी सावधानी स्वयं के साम्राज्य में अतुल्य विपुल आत्मवैभव और आत्म सौंदर्य का अतुल खजाना लिये खड़ी है।
उठो، जागो और संभलों कि पा सकों स्वयं को، जान सको स्वयं के आत्मा को। परमशांति के दूत तुम्हारे स्वागत के लिये खड़े है और प्रकाश तुम्हें दिव्यता की ओर ले जाने को आतुर है आत्म तुम्हें पुकार रहा हैं ، तुम स्वयं के मालिक बन सको और यही तुम्हारा लक्ष्य हैं।
قداسة Sadhgurudev
السيد كايلاش شاندرا شريمالي
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