जो भी जीवित है ، वह आशा से जीवित है और जो भी मृत है ، वह निराशा से मृत है। यदि हम छोटे बच्चों को देखे ، जिन्हें अभी समाज ، शिक्षा और सभ्यता ने विकृत नहीं किया है ، तो बहुत से जीवन-सूत्र हमें दिखाई पड़ेंगे। सबसे पहली बात दिखाई पड़ेगी-आशा ، दूसरी बात-जिज्ञासा ، और तीसरी बात-श्रद्धा। निश्चय ही ये गुण स्वाभाविक हैं। उन्हें अर्जित नहीं करना होता है। हाँ हम चाहे तो उन्हें खो अवश्य सकते है। फिर भी हम उन्हें बिल्कुल ही नहीं खो सकते है ، क्योंकि जो स्वभाव है वह नष्ट नहीं होता और जो स्वभाव नहीं है ، वह भी केवल वस्त्र ही बन सकता है ، अंतत कभी नहीं।
इसलिए मैं कहता हूँ कि वस्त्रों को अलग करों और उसे देखो जो तुम स्वयं हो। सब वस्त्र बंधन है और निश्चय ही परमात्मा निर्वस्त्र है। क्या अच्छा न हो कि तुम भी निर्वस्त्र हो जाओ؟ मैं उन वस्त्रों की बात नहीं कर रहा हूँ जो कपास के धागों से बनते है। उन्हें छोड़ कर तो बहुत से व्यक्ति निर्वस्त्र हो जाते है और फिर वही बने रहते है जो वस्त्रों में थे ، कपास में थे। कपास कमजोर धागे नहीं، निषेधात्मक भावनाओं की लौह श्रृंखलाओं रूपी वस्त्र के बंधन है। उन्हें जो छोड़ता है वही उस निर्दोष नग्नता को उपलब्ध होता है।
मैं यह क्या देख रहा हूँ؟ यह कैसी निराशा तुम्हारी आंखों में है؟ और क्या तुम्हें ज्ञात नहीं है कि जब आंखे निराश होती हैं ، तब हृदय की वह अग्नि बुझ जाती है और सारी अभीप्साएं सो जाती है ، जिनके कारण तुम स्वयं हों। निराशा पाप है، क्योंकि जीवन उसकी धारा में निश्चय ही ऊर्ध्वगमन खो देता है। निराशा पाप ही नहीं ، आत्मघात भी है ، क्योंकि जो श्रेष्ठतर जीवन को पाने में संलग्न नहीं है ، उसके चरण अनायास ही मृत्यु की ओर बढ़ जाते हैं। यह शाश्वत नियम है कि जो ऊपर नहीं उठता ، वह नीचे गिर जाता है और जो आगे नहीं बढ़ता उसको पीछे धकेल दिया जाता है। मैं जब किसी को पतन में जाते देखता हूँ तो जानता हूँ कि उसने पर्वत-शिखरों की ओर उठना बंद कर दिया। पतन की प्रक्रिया विधेयात्मक नहीं हैं घाटियों में जाना ، पर्वतों पर न जाने का ही दूसरा पहलू है। वह उसकी ही निषेध छाया है और जब तुम्हारी आंखों में निराशा देखता हूँ तो स्वाभाविक ही है कि मेरा हृदय प्रेम ، पीड़ा और करूणा से भर जाता है ، क्योकि निराशा मृत्यु की घाटियों में उतरने का प्रारम्भ है
आशा सूर्यमूखी के फूलों की भांति सूर्य ओर देखती है और निराशा؟ वह अंधकार से एक हो जाती है। जो निराश हो जाता है ، वह अपनी अंतर्निहित विराट शक्ति के प्रति सो जाता है और उसे विस्मृत कर देता है जो वह है ، और जो वह हो सकता है। बीज जैसे भूल जाए कि उसे क्या होना है और मिट्टी के साथ ही एक होकर पड़ा रह जाए ، ऐसा ही वह मनुष्य जो निराशा में डुब जाता है। वह उच्चता की और बढ़ना ही भूल गया और परमात्मा ، गुरू को दोषी ठहराने लगा है।
यह समाचार उतना दुखद नहीं है जितना कि आशा का मर जाना। क्योंकि आशा हो तो परमात्मा को पा लेना कठिन नहीं और यदि आशा न हो तो परमात्मा के होने से कोई भेद नहीं होता। आशा का आकर्षण ही मनुष्य को अज्ञात की यात्रा पर ले जाता है। आशा ही प्रेरणा है जो उसकी सोई शक्तियों को जगाती है और उसकी को सक्रिय हैं क्या आशा की भाव-दशा ही आस्तिकता है؟ यह भी कि आशा ही समस्त जीवन-आरोहण का मूल प्राण है؟ पर आशा कहाँ है؟ मैं तुम्हारे प्राणों में खोजता हूँ तो वहाँ निराशा की राख के सिवाय और कुछ भी नहीं मिलता। आशा के अंगारे न हो तो तुम जीओगे कैसे؟ निश्चयनिश्चय तुम्हारा यह जीवन इतना बुझा है कि मैं इसे जीवन हूँ मुझे आज्ञा दो कि तुम मर गए हो असल में तुम कभी जीए ही नहीं। तुम्हारा जन्म तो जरूर हुआ था ، लेकिन वह जीवन तक नहीं पहुँच सका! जन्म ही जीवन नहीं है। जन्म मिलता है، जीवन को पाने के लिये।
इसलिए जन्म को मृत्यु छीन सकती है، लेकिन जीवन को कोई भी मृत्यु छीन नहीं सकती। जीवन जन्म नहीं है और इसलिए जीवन मृत्यु भी नहीं है। जीवन जन्म के पूर्व है और मृत्यु के भी अतीत है। जो उसे जानता है वही केवल भय और दुखों के ऊपर उठ पाता है। किन्तु जो निराशा से घिरे है ، वे उसे कैसे जानेंगे؟ वे तो जन्म और मृत्यु के तनाव में ही समाप्त हो जाता है। जीवन एक संभावना है और उसे सत्य में परिणित करने के लिए गुरू साधना चाहिए। निराशा में साधना का जन्म नहीं होता ، क्योंकि निराशा तो बोझ है और उसमें कभी भी किसी का जन्म नहीं होता। इसीलिए मैंने कहा कि निराशा आत्मघाती है، क्योंकि उससे किसी भी भांति में सृजनात्मक शक्ति का विकास नहीं होता है।
मैं कहता हूँ، उठो और निराशा को फेंक दो। उसे तुम अपने ही हाथों से ओढ़े बैठे हो। उसे फेंकने के लिए और कुछ भी नहीं करना है सिवाय तुम उसे फेंकने को राजी हो जाओ। तुम्हारे अतिरिक्त और कोई उसके लिए जिम्मेवार नहीं है। मनुष्य जैसा भाव करता है، वैसा ही हो जाता हैं। उसके ही भाव उसका सृजन करते है। वही अपना भाग्य-विधाता है। स्मरण रहे कि तुम जो भी हो वह तुमने ही अनंत बार चाहा है ، विचार और उसकी भावना की है ، देखो ، स्मृति में खोजो ، तो निश्चय ही जो मैं कह रहा हूँ उस सत्य के तुम्हें दर्शन होंगे और जब यह सत्य तुम्हें दिखेगा तो स्वयं के आत्म-परिवर्तन की कुंजी को पा जाओगे। अपने ही द्वारा ओढें भावों और विचारों को उतार कर अलग कर देना कठिन नहीं होता है। वस्त्रों को पहनने में भी जितनी कठिनता होती है उतनी भी उन्हें उतारने में नहीं होती है ، क्योकि वे तो है भी नहीं। सिवाय तुम्हारे ख्याल के उनका कहीं भी कोई रास्ता नहीं है। हम अपने ही भावों में अपने ही हाथों से कैद हो जाते है، अन्यथा वह जो हमारे भीतर है، सदैव ही स्वतंत्र है।
क्या निराशा से बड़ी और कोई कैद है؟ नहीं! क्योंकि पत्थरों की दीवारें जो नहीं कर सकती، वह निराशा करती है। दीवारों को तोड़ना संभव है، लेकिन निराशा तो मुक्त होने की आकांक्षा को ही खो देती है। निराशा से मजबूत जंजीरे भी नहीं है ، क्योंकि लोहे की जंजीरे तो मात्र शरीर को ही बांधती हैं ، निराशा तो आत्मा को भी बांध लेती है।
निराशा की इन जंजीरों को तोड़ दो! उन्हें तोड़ा जा सकता है، इसीलिए ही मैं तोड़ने को कह रहा हूँ। उनकी सत्ता स्वप्न सत्ता मात्र है। उन्हें तोड़ने के संकल्प मात्र से ही वे टूट जाएंगी। जैसे दीये के जलते ही अंधकार टूट जाता है ، वैसे ही संकल्प के जागते ही स्वप्न टूट जाते है और फिर निराशा के खंडित होते ही जो आलोक चेतना को घेर लेता है ، उसका ही नाम आशा है।
निराशा स्वयं आरोपित दशा है। आशा स्वभाव है، स्वरूप है। निराशा मानसिक आवरण है، आशा आत्मिक आविर्भाव। मैं कह रहा हूँ कि आशा स्वभाव है। क्यों؟ क्योंकि यदि ऐसा न हो तो जीवन-विकास की ओर सतत् गति और आरोहण की कोई संभावना न रह जाए। बीज अंकुर बनने को तड़पता है ، क्योंकि कही उसके प्राणों के किसी अंतरस्थ केंद्र पर आशा का आवास सभी सभी प्राण होना है है जो जो भी है वह विकसित और पूर्ण होना चाहता है।
अपूर्ण को पूर्ण के लिए अभीप्सा आशा अभाव में कैसे हो सकती है؟ और पदार्थ की परमात्मा की ओर यात्रा आशा के बिना संभव है؟ सत्य को पाने को ، स्वयं को जानने को स्वरूप में प्रतिष्ठित होने को ، सब वस्त्रों को छोड़ नग्न हो जाना आवश्यक है और निराशा के वस्त्र सबसे पहले छोड़ने होंगे ، क्योंकि उसके बाद ही दूसरे वस्त्र छोड़े जा सकते है। परमात्मा की उपलब्धि के पूर्व यदि तुम्हारे चरण कहीं भी रूकें तो जानना कि निराशा का विष कही न कहीं तुम्हारे भीतर बना ही हुआ है। उससे ही प्रमाद और आलस्य उत्पन्न होता है।
संसार में विश्राम के स्थलों को ही प्रमादवश गंतव्य समझने की भूल हो जाती है। परमात्मा के पूर्व और परमात्मा के अतिरिक्त और कोई गंतव्य नहीं है। इसे अपनी समग्र आत्मा को कहने दो। कहने दो कि परमात्मा के अतिरिक्त और कोई चरम विश्राम नहीं ، क्योंकि परमात्मा में ही पूर्णता है।
परमात्मा के पूर्व जो रूकता है، वह स्वयं का अपमान करता है، क्योंकि वह जो हो सकता था، उसके पूर्व ही ठहर गया होता हैं। संकल्प और साध्य जितना ऊंचा हो، उतनी ही गहराई तक स्वयं की सोयी शक्तियां जागती हैं साध्य की ऊंचाई ही तुम्हारी शक्ति का परिमाण है। आकाश को छूते वृक्षों को देखो! उनकी जड़ें अवश्य ही पाताल को छूती होगी। तुम भी यदि आकाश छूने की आशा और आकांक्षा से आंदोलित हो जाओगे तो निश्चय ही जान जाओंगे कि तुम्हारे गहरे से गहरे प्राणों में सोई हुई शक्तियां जाग जाएंगी।
जितनी तुम्हारी अभीप्सा की ऊंचाई होती है، उतनी ही तुम्हारी शक्ति की गहराई भी होती है। क्षुद्र की आकांक्षा चेतना को क्षुद्र बनाती है। तब यदि मांगना ही है तो परमात्मा को मांगो। वह जो अंततः तुम होना चाहोगे، प्रारंभ से ही उसकी ही तुम्हारी मांग होनी चाहिएं। क्योंकि प्रथम ही अंततः अंतिम उपलब्धि बनता है। मैं जानता हूँ कि तुम ऐसी परिस्थितियों में निरंतर ही घिरे हो जो प्रतिकूल हैं और परमात्मा की ओर उठने से रोकती है। लेकिन ध्यान में रखना कि जो परमात्मा की ओर उठे ، वे भी कभी ऐसी ही परिस्थितियों से घिरे थे। परिस्थितियों का बहाना मत लेना، परिस्थितियां नही، वह बहाना ही असली अवरोध बन जाता है। परिस्थितियां कितनी ही प्रतिकूल हैं और परमात्मा की ओर उठने से रोकती है। लेकिन ध्यान में रखना कि जो परमात्मा की ओर उठे ، वे भी कभी ऐसी ही परिस्थितियों से घिरे थे।
परिस्थितियों का बहाना मत लेना। परिस्थितियां नहीं، वह बहाना ही असली अवरोध बन जाता है। परिस्थितियां कितनी ही प्रतिकूल हो ، वे इतनी प्रतिकूल कभी भी नहीं हो सकती हैं कि परमात्मा के मार्ग में बाधा बन जावे! वैसा होना असंभव है। वह तो वैसा ही होगा जैसे की कोई कहे कि अंधेरा इतना घना है कि प्रकाश के जलाने में बाधा बन गया है।
अंधेरा कभी इतना घना नहीं होता और न ही परिस्थितियां इतनी प्रतिकूल होती है कि वे प्रकाश के आगमन में बाधा बन सकें। तुम्हारी निराशा के अतिरिक्त और कोई बाधा नहीं है। वस्तुतः तुम्हारे अतिरिक्त उसे बहुत मूल्य कभी मत दो आज है और कल नहीं होगा। जिसमें पल-पल परिवर्तन है उसका मूल्य ही क्या؟ परिस्थितियों का प्रवाह तो नदी की भांति है। उसे देखो، उस पर ध्यान दो، जो नदी की धार में भी अडिग चट्टान की भांति स्थिर है। वह कौन है؟ वह तुम्हारी चेतना है ، वह तुम्हारी आत्मा है ، वह तुम अपने वास्तविक स्वरूप में स्वयं हो! सब बदल जाता है، बस वही अपरिवर्तित है। उस ध्रुव बिंदु को पकड़ों और उस पर ठहरों।
लेकिन तुम तो आंधियों के साथ कांप रहे हो और लहरों के साथ थरथरा रहे हों। क्या वह शांत और अडिग चट्टान तुम्हें दिखाई पड़ती है जिस पर तुम हो और तुम हो؟ उसकी स्मृति को लाओ। उसकी ओर आंखे उठते ही निराशा आशा में परिणत हो जाती है और अंधकार आलोक बन जाता है। स्मरण रखना कि जो समग्र हृदय से ، आशा और आश्वासन से शक्ति और संकल्प से ، प्रेम और प्रार्थना से ، स्वयं की सत्ता का द्वार खटखटाता है व कभी भी असफल नहीं लौटता है ، क्योंकि प्रभु के मार्ग पर असफलता है ही नहीं। पाप के मार्ग पर सफलता असंभव पाप के मार्ग पर सफलता हो तो समझना कि भ्रम है और के मार्ग मार्ग हो तो समझना कि परीक्षा है।
वस्तुत प्रभु की उपलब्धि का द्वार कभी बंद ही नहीं है। हम अपनी ही निराशा में अपनी ही आंख बंद कर लेते है ، यह बात दूसरी है। निराशा को हटाओं और देखो ، वह कौन सामने खड़ा है! क्या यही वह सूर्य नहीं है जिसकी खोज थी؟ क्या यही वह प्रिय नहीं है जिसकी प्यास थी؟ क्राइस्ट ने कहा है، मांगो और मिलेगा। खटखटाओ और द्वार खुल जाएंगे। वही मैं पुनः कहता हूँ वही क्राइस्ट के पहले कहा गया था ، वही मेरे बाद भी कहा जाएगा। धन्य हैं वे लोग जो द्वार खटखटाते है! और आश्यर्च है उन लोगों पर के द्वार ही आंख बंद किये और और रो रहे है!
साधक की यात्रा जिन दो पैरों से होती है ، उन दो पैरों की सूचना शांति के आखिरी हिस्से में है। साधक का एक पैर तो है संकल्प और साधक का दूसरा पैर है समर्पण। साधक का संकल्प प्राथमिक है। वह कहाँ जाना चाहता है، क्या होना चाहता है، उसके लिये संकल्प शक्ति का होना जरूरी है। लेकिन यह भी ध्यान रखना है साधक के संकल्प ही काफी नहीं है। गुरू के बिना، गुरू के संकल्प के बिना एक इंच यात्रा नहीं होगी، लेकिन गुरू के संकल्प मात्र से ही यात्रा नहीं हो सकती। उसे गुरू परमशक्ति का सहारा भी लेना होगा। व्यक्ति की शक्ति उतनी कम है، न के बराबर कि अगर गुरू का सहारा न मिले तो यात्रा नहीं हो सकती।
एक ज्ञान है जो भर तो देता है मन को बहुत जानकारी से ، लेकिन हृदय को शून्य नहीं करता। एक ज्ञान है जो मन को भरता नहीं ، खाली करता है हृदय को शून्य का मंदिर बनाता है। एक ज्ञान है، जो सीखने से मिलता है और एक ज्ञान है जो अनसीखपन से मिलता। जो सीखने से मिले ، वह कूड़ा-करकट है। जो अनसीखने से मिले، वही मूल्यवान है। सीखने से वही सीखा जा सकता है، जो बाहर से डाला जाता है। अनसीखने से उनका जन्म होता है، जो तुम्हारे भीतर सदा से छिपा ही है। जीवन मिट्टी का एक दीया है، लेकिन ज्योति उसमें मृणमय की नहीं चिन्मय की है। दीया पृथ्वी का، ज्योति आकाश की، दीया पदार्थ का، ज्योति परमात्मा की। दीया एक अपूर्व संगम है। इसे ठीक से समझ लेना ، क्योंकि तुम भी मिट्टी के ही दीये हो ، तुम जीवन की सार्थकता और सत्य से वंचित रह जाओगे। दीया जरूरी है ، लेकिन ज्योति के होने के लिये जरूरी है ، ज्योति के बिना दीये का क्या अर्थ؟ ज्योति खो जाये ، दीये का क्या मूल्य؟ ज्योति न हो तो दीये का क्या करोगे؟
ज्योति की स्मृति बनी रहे، ज्योति निरंतर आकाश की तरफ़ उठती रहे तो दीया सीढ़ी है और तब तुम दीये को धन्यवाद दे सकोगे। जिन्होंने भी आत्मा को जाना، वे शरीर को धन्यवाद देने में समर्थ हो सके। जिन्होंने आत्मा को नहीं जाना वे या तो शरीर की मान कर चलते रहे ، ज्योति दीये का अनुसरण करती रही और गहन से गहन अचेतना और मूर्च्छा में गिरते गये या जिन्होंने आत्मा को नहीं ، उन्होंने व्यर्थ ही शरीर से लिया। जो साथी हो सकता था، उसे शत्रु बना लिया।
जिन्हें तुम सांसारिक कहते हो ، वे पहले तरह के लोग हैं ، जिनके भीतर का परमात्मा ، जिनके बाहर की खोल का अनुसरण कर रहा है ، जिन्होंने गाड़ी के पीछे बैल जोत दिये हैं और बैलगाड़ी के साथ घसीट रहे हैं। जिन्होंने क्षुद्र को आगे कर लिया है और विराट को पीछे، उनके जीवन में अगर दुःख ही दुःख हो तो आश्चर्य नहीं। कीचड़ से कमल पैदा होता है। तुम्हारे शरीर के कीचड़ से तुम्हारी आत्मा का कमल पैदा होगा।
कीचड़ से दुश्मनी मत करना، अन्यथा कमल पैदा ही न होगा। कीचड़ और कमल में कितना ही विरोध दिखाई पडे ، भीतर गहरा सहयोग है। कीचड़ कितना ही कीचड़ लगे ، कहां ، संबंध भी तो नहीं मालूम पड़ता! कमल सुंदर ، अपूर्व सुंदर ، अद्वितीय रेशम-सा कोमल! कहां कीचड़ गंदी दुर्गन्ध भरी! ؟ तो तुम भी कहोगे कि इन दोनों में कैसा संबंध؟ कहा कीचड़ ، कहां कमल! लेकिन तुम जानते हो، कीचड़ से कमल पैदा होता है। मृण्मय में चिन्मय का जागरण होता है।
कीचड़ से कमल पैदा होता है ، इसका अर्थ ही यह हुआ कि कीचड़ के गहरे में कमल छिपा है ، अन्यथा पैदा कैसे होगा؟ इसका अर्थ यही हुआ कि कीचड़ ऊपर-ऊपर से गंदी दिखाई पड़ती है ، भीतर तो कमल जैसी ही होगी। इसका अर्थ हुआ कि दुर्गन्ध ऊपर का परिचय है ، सुगंध भीतर का परिचय है।
एक प्राचीन कथा है। एक बाप अपने तीन बेटों में सम्पत्ति बांटना चाहता था ، लेकिन निश्चय न कर पाता था कि कौन योग्य और कौन सुपात्र है। तीनों ही जुड़वा पैदा हुये थे، इसलिए उम्र से तय न किया जा सकता था। तीनों एक-से बुद्धिमान थे। तो उसने अपने गुरू से सलाह ली। गुरू ने उसे एक गुर बताया।
उसने बेटों से कहा कि मैं तीर्थयात्रा पर जा रहा हूँ और बेटों को उसने कुछ बीज दिये फूलों के बीज और कहा कि संभाल कर रखना ، जब मैं लौट आऊं तब मैं तुमसे वापस मांगूगा। पहले बेटे ने सोचा कि इन बीजों को कोई बच्चे उठा लिये، कोई जानवर खा गया، ऐसा सोचकर उसने उन बीजों को तिजोड़ी में बंद कर दिया। तिजोड़ी में बंद करके रख दिया और निशि्ंचत हो गया। लोहे की तिजोड़ी चोरों का भी क्या डर! और कौन चोर लोहे की तिजोड़ी तोड़ कर बीज चुराने आयेगा! वह निश्चित रहा। बाप आयेंगे तो، लौटा देंगे।
दूसरे ने सोचा कि तिजोड़ी में रखूं तो बीज सड़ सकते हैं और बाप ने ताजा जीवित बीज दिये और मैं लौटाऊं-यह तो लौटाना नहीं हुआ। क्या करूं؟ बीज जीवित कैसे रहें؟ उसने सोचा बाजार में बेच दूं، तिजोड़ी में रूपये रख दूं। बाप जब वापस आयेंगे، बाजार से बीज खरीद कर लौटा देंगे।
तीसरे ने सोचा कि बीज का अर्थ ही होता है ، होने की संभावना। बीज का अर्थ ही होता है जो होने को तत्पर है ، जिसके भीतर कुछ होने को मचल रहा है। तो उसने बीज दिये हैं ، मतलब साफ़ है कि इन्हें उगाना है ، जिसने रखा ، वह नासमझ है। ये तो बढ़नें को राजी थे، ये तो फूल बनने को राजी थे और एक बीज से करोड़ो बीज पैदा होते है। पता नहीं، पिताजी कब लौटे، तीर्थ लंबा है، यात्रा में वर्षों लगेंगे- उसने बीज बो दिये।
तीन वर्षों बाद पिता वापस लौटा। पहले बेटे को उसने कहा। पहले बेटे ने तिजोड़ी की चाबी दे दी। खोली गई तिजोड़ी، सभी बीज सड़ चुके थे، न हवा लगी، न सूरज की रोशनी लगी और किसी ने उन पर ध्यान ही न दिया तीन वर्ष तक तिजोड़ी में पड़े पड़े सड़ गये बीज। बीज कोई लोहे की तिजोड़ीयों में बंद करने को थोड़ी हैं! उन्हें तो खुला आकाश चाहिये ، हवा चाहिये ، रोशनी चाहिये ، पानी चाहिये तो ही वे जिंदा रह सकते हैं। !
बाप ने कहा-तुमने संभाला तो، लेकिन संभाल न पाये। तुम मेरी सम्पत्ति के अधिकारी न हो सकोगे। तुम नासमझ हो। जितना मैं तुम्हे दे गया था، उतने भी तुम वापस न कर पाये। ये बीज तो समाप्त हो गये، इनमें अब एक भी जीवित नही है، अब इनको बोओगे तो कुछ भी पैदा न होगा तो राख है और मैं तुम्हें बीज दे गया था। बीज थे जीवंत، उनमें संभावना थी बहुत होने की، उनकी सारी संभावना खो गई है، सिर्फ राख है، इनसे कुछ भी नहीं हो सकता। ये मृत्यु हैं।
दूसरे बेटे से कहा। दूसरा बेटा भागा रूपये लेकर ، बीज खरीद कर ले आया-ठीक उतने ही बीज जितने बाप ने उसे दिया था। बाप ने कहा तुम थोड़े कुशल हो، लेकिन तुम भी काफी नहीं، क्योंकि जितना दिया था उतना भी लौटाना भी कोई लौटाना है! यह तो जड़बुद्धि वाला व्यक्ति भी कर लेता। इसमें तुमने कुछ बुद्धिमता न दिखाई और बीज का तुम राज न समझे। बीज का मतलब ही यह है कि जो ज्यादा हो सकता था। उसे तुमने रोका और ज्यादा न होने दिया। तुम पहले वाले से योग्य हो، लेकिन पर्याप्त नहीं।
तीसरे बेटे से पूछा कि बीज कहाँ हैं؟ तीसरा बेटा बाप को भवन के पीछे ले गया जहाँ सारा बगीचा फ़ूलों और बीजों से भरा था। उसके बेटे ने कहा، ये रहे बीज। आप दे गये थे، मैने सोचा इन्हे बचा कर रखने में मौत हो सकती है। इन्हें बाजार में बेचना उचित नहीं है क्योंकि आप सुरक्षित रखने को कहे थे और फिर आपने चाहा था कि यही बीज वापस लौटाये जायें। बाजार से तो दूसरे बीज वापस लौटेंगे ، वे वहीं न होंगे ، फिर वे उतने ही होंगे जितने आप दे गये थे ، तो मैंने बीज बो दिये थे ، अब ये वृक्ष हो गये हैं ، इनमें बहुत बीज हो गये हैं ، बहुत फूल लग गये हैं । हजार गुने करके आपको वापस लौटाता हूँ।
وبطبيعة الحال ، أصبح الابن الثالث مالكًا لممتلكات الأب. أيا كان ما أعطاك إياه الله ، فعليك على الأقل إرجاع هذا القدر. إذا لم تتمكن من زيادته ، فهو جيد جدًا.
एक अंधेरी रात की भांति है तुम्हारा जीवन ، जहाँ सूरज की किरण तो आना असंभव है ، मिट्टी के दीये की छोटी सी लौ भी नहीं है। . इतना भी होश बना रहे कि मैं अंधकार में हूँ، तो आदमी खोजता है، तड़पता है प्रकाश के लिए، प्यास जगती है، टटोलता है، गिरता है، उठता है، मार्ग खोजता है، गुरू खोजता है، लेकिन जब कोई अंधकार को ही प्रकाश समझ ले तब सारी यात्रा समाप्त हो जाती है। मृत्यु को ही कोई समझ ले जीवन، तो फिर जीवन का द्वार बंद ही हो गया।
जब भी ज्ञान का जन्म होता है، तभी करूणा का जन्म हो जाता है। क्यों؟ क्योंकि अब तक जो जीवन ऊर्जा वासना रही थी वह कहां जायेगी؟ ऊर्जा नष्ट नहीं होती। कभी धन के पीछे दौड़ती थी ، पद के पीछे दौड़ती थी ، महत्वाकांक्षाएं थी अनेक-अनेक तरह के भोगों की कामना थी ، सारी ऊर्जा वहाँ संलग्न थी। प्रकाश का जलते ، ज्ञान का उदय होते ، वह सारा अंधकार ، वह भोग ، महत्वाकांक्षा ऐसे ही विलीन हो जाते हैं ، जैसे दीये को जलाने से अंधकार।
ऊर्जा क्या होगी؟ जो ऊर्जा काम वासना बनी थी ، जो ऊर्जा क्रोध बनती थी ، जो ऊर्जा ईर्ष्या बनती थी ، उस ऊर्जा का ، उस शुद्ध शक्ति का क्या होगा؟ वह सारी शक्ति करूणा बन जाती है। महाकरूणा का जन्म होता है। धन की वासना अकेली नहीं है। पद की वासना भी है। तुम पद पाने के लिये धन का भी त्याग कर देते हो। चुनाव में लगा देते हो सब धन، कि किसी तरह मंत्री हो जायें। लेकिन मंत्री की कामना भी पूरी कामना नहीं है। तुम्हारी सभी कामनाएं अधूरी-अधूरी हैं। हजार कामनाये है और सभी में ऊर्जा बंटी है। लेकिन जब सभी कामनाएं शून्य हो जाती हैं ، सारी ऊर्जा मुक्त होती है। तुम एक अदम्य ऊर्जा के स्रोत हो जाते हो। एक प्रगाढ़ शक्ति!
जब भी आनंद का जन्म होता है ، समाधि का जन्म होता है ، सत्य का आकाश मिलता है ، तब तुम तत्क्षण पाते हो कि वे जो पीछे रह गये ، उन्हे भी इसी खुले आकाश में ले आना है। तब तुम्हारा सारा जीवन जो बंधे हैं उन्हें मुक्त करने में लग जाता है। जो कारागृह में हैं، उन्हें खुला आकाश देने में लग जाता है। जिनके पैर जाम हो गए हैं، उनके पैरों को फिर जीवन देने में लग जाता है।
जीवन बीतता है बूंद-बूंद रिक्त होता है रोज हाथ से जैसे रेत सरकती वैसे पैर के नीचे की भूमि सरकती जाती है। दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि देखने के लिये बड़ी सजगता चाहिये और इतने धीमे-धीमे बीतता है जीवन ، कि पता नहीं चलता कि हर घड़ी मौत निकट आ रही है। जब भी कोई मरता है तो मन सोचता है ، मौत रोज दूसरे की होती है। मैं तो कभी मरता नहीं، कोई और मरता है। लेकिन हर मौत तुम्हारी मौत की खबर लाती है। जो पड़ोसी को हुआ है، वही तुम्हे भी हो जानेवाला है।
आखिरी क्षण तक भी होश नहीं आता बेहोशी में ، अपने ही हाथ से आदमी अपने को समाप्त कर लेता है और भी तुम कर रहे हो उसका कोई भी अत्यधिक मूल्य नहीं है। कितना ही धन कमाओ ، कितना ही पद-प्रतिष्ठा मिले ، मौत सब कुछ सापफ़ कर देती है। मौत सब मिटा देती है। तुम्हारे बनाये सब घर ، ताश के पत्तों के घर सिद्ध होते हैं और तुम्हारे द्वारा बनाई गई नावें कागज की नावें सिद्ध होती है। सब डूब जाता है।
जिसे यह होश आना शुरू हो गया कि मौत है ، उसी के जीवन में धर्म की किरण उतरती है। मौत का स्मरण धर्म की प्राथमिक भूमिका है। अगर मृत्यु न होती तो संसार में धर्म भी न होता। मृत्यु है और जब तक तुम मृत्यु को झूठलाओगे तब तक तुम्हारे जीवन में धर्म की किरण न उतरेगी। मृत्यु को ठीक से समझो क्योंकि उसके आधार पर ही जीवन में क्रांति होगी। तुम्हे अगर पता चल जाये कि आज सांझ ही मर जाना है، तो क्या तुम सोचते हो، तुम्हारे दिन का व्यवहार वही रहेगा जो इस पता न चलने पर रहता؟ क्या तुम उसी भांति दुकान जाओगे؟
उसी प्रकार ग्राहकों का शोषण करोगे؟ क्या उसी भांति व्यवहार करोगे ، जैसा कल किया था؟ क्या पैसे पर तुम्हारी पकड़ वैसे ही होगी ، जैसे एक क्षण पहले तक थी؟ क्या मन में वासना उठेगी ، काम जागेगा؟ राह से गुजरती कार मोहित करेगी؟ किसी का भवन देख कर ईर्ष्या होगी؟ नहीं सब बदल जाएगा।
अगर मौत का पता चले कि आज ही सांझ हो जाने वाली है، तुम्हारे जीवन का सारा अर्थ، तुम्हारे जीवन का सारा प्रयोजन، तुम्हारे जीवन का सारा ढंग और शैली बदल जाएगी। मौत का जरा सा भी स्मरण तुम्हें वही न रहने देगा जो तुम हो और जो तुम हो बिल्कुल गलत हो। क्योंकि सिवाय दुःख के और तुम्हारे होने से कुछ भी फल नहीं आता। फल लगते है निश्चित، केवल दुःख के लगते हैं। फल लगते हैं निश्चित तुम्हारी आशाओं के अनुकूल नही ، न तुम्हारे स्वप्नों के अनुसार। फल लगते हैं तुम्हारी आशाओं के विपरीत، तुम्हारे सपनों से बिल्कुल उलटे।
शरीर को ही तुमने अगर देखा तो तुम कीचड़ पर रूक गये और कमल से अपरिचित रह गये। अगर तुमने शरीर से शत्रुता की और शरीर को दबाने और गलाने में लग गये ، तो भी तुम वंचित रह जाओंगे ، क्योंकि उस संघर्ष से कमल पैदा न होगा। कमल तो पैदा होता है कीचड़ के सहयोग से। इस सहयोग का नाम ही योग की कला है। योग अस्तित्व की दई के बीच एक को खोज लेने की कला है। जहाँ दो दिखाई पडें- अत्यंत विपरीत ، वहाँ भी एक के ही सूत्र को देख लेना ، एक के ही जोड़ को देख लेना ، वही योग की परम दृष्टि है। इसलिये में निरंतर कहता हूँ، तुम्हारे भीतर छिपा हुआ काम ही तुम्हारे भीतर का राम बन जायेगा। तुम्हारे भीतर की कीचड़ तुम्हारा कमल बन जायेगा।
قداسة Sadhgurudev
السيد كايلاش شاندرا شريمالي
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