मुझे ऐसे शिष्यों की आवश्यकता नहीं है، जिनमें कायरता हो، विरोधा सहने की क्षमता न हो، जो जरा सी विपरीत स्थिति प्राप्त होते ही विचलित हो जाते हों। . ऐसे शिष्य स्वतः ही मेरी आत्मा का अंश बन जाते हैं उनका नाम स्वतः ही मेरे होठों से उच्चारित होने लगता और वे मेरे हृदय की गहराइयों में उतर जाते हैं।
पूर्णता तो तब सम्भव होती है ، जब शिष्य गुरू के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोए ، अपने को पूर्ण विसर्जित करे ، उसका हृदय गद्गद् हो जाय ، गला भर जाय ، और रूंधो हुए गले से जो कुछ शब्द शब्द ، तो ' गुरूदेव 'शब्द ही निकले।
शिष्य तो वह है ، जिसकी हर समय मन में यही इच्छा हो ، कि मैं गुरू के पास दौड़कर पहुंच जाऊं हो सकता है कोई मजबूरी हो ، नहीं जा सके ، यह अलग चीज है ، मगर मन में उत्कण्ठा हो ، तीव्र इच्छा हो ، छटपटाहट बनी रहे कि उसे हर हालत में गुरू के पास पहुंचना है।
अणु से विराट बनने की क्रिया केवल गुरू जानता है ، मनुष्य से देवता बनाने की क्रिया केवल गुरू जानता है। मूलाधार से सहस्त्रार तक पहुंचाने की क्रिया केवल गुरू जानता है और इसीलिए जीवन का आधार केवल और केवल गुरू ही होता है।
तुम्हें कभी जिन्दगी में ठोकर लगे، मैं तो ऐसा चाहता हूं कि जल्दी ही लगे। ऐसा तुम्हें एहसास हो सके कि तुम्हारी जिन्दगी का कुछ उद्देश्य، कुछ लक्ष्य है और तुम उस उद्देश्य के पद पर गतिशील हो सके।
स्थूल जगत में जो कुछ हम देखना चाहते हैं या और जो कुछ हम देखते हैं और जिनको देखने से हमें प्रसन्नता होती वह वह क्षणिक है
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