'अहं ब्रह्मास्मि' का मंत्र देने वाले आदि शंकराचार्य ने स्वयं के आकलन पर बल दिया था। उनका मानना था कि दीनता अन्तरूजनित नहीं बाह्य प्रभावित है। उन्होंने हर मानव को यह अहसास कराने की कोशिश की ، अन्दर से सभी एक समान है फिर भी सुखी-दुःखी ، सबल-निर्बल ، अमीर-गरीब का भेद दृष्टि गोचर होता है ، जबकि सबके अन्दर एक जैसी शक्ति है। कोई अपनी शक्ति को पहचान लेता है और कोई अपनी शक्ति को पहचानने में विलम्ब करता है। अपनी शक्ति को पहचान कर 'अहं ब्रह्मास्मि' की अनुभूति करने से व्यक्ति का आध्यात्मिक विकास तय है।
मैं ब्रह्म हूँ، मैं मुक्त हूँ، मैं अद्वैत रूप हूँ، मैं चिरंतनसत्य हूँ، मेरी आत्मा ब्रह्म है सब कुछ ब्रह्म है या अविद्या का स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। शंकराचार्य की ये मान्यताये वर्तमान मानव समाज को इस बात के लिए प्रेरित करती हैं कि परावलम्बी मत बनो ، आत्म निर्भर बनो। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। अपने अंदर अनंत शक्ति का स्रोत निहित है। नित्य एवं अनित्य में विवेक करो ، इह लोक और परलोक की विषय वासनाओं से दूर रहो ، शम ، दम ، श्रद्धा ، समाधान उपरति और तितिक्षा के द्वारा अपना निर्माण करो।
उपनिषदों में एक वाक्य 'तत्वमसि' अत्यन्त प्रसिद्ध है। तत् अर्थात् ब्रह्म एवं त्वम अर्थात् आत्मा है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा है। आत्मा के बिना किसी के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती। 'सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म' अर्थात् ब्रह्मसत، ज्ञान और अनन्त रूप है। ब्रह्म सत्य है ، असत्य नहीं ، ब्रह्म ज्ञान रूप है ، अज्ञान नहीं ، अनन्त है सीमित नहीं। यह सच्चिदानन्द रूप है। यह सत् है، चित् है और आनंद रूप है। प्रत्येक व्यक्ति की आत्मा में यह क्षमता है कि वह सच्चिदानन्द ब्रह्म रूप को प्राप्त कर सके। जिस आत्मा से ब्रह्म रूप प्राप्त करने का प्रयत्न होता है वह आत्मा ब्रह्म रूप को प्राप्त करता है। किन्तु जो भय या अन्यान्य कारणों से पुरुषार्थ से वंचित रहते हैं، शंकर के अनुसार वे इस जगत् के व्यामोह में पड़े रहते हैं। शंकराचार्य का संदेश यही है कि अपनी शक्ति को पहचान कर अपनी आत्मा को ब्रह्म रूप देने का प्रयत्न करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म है।
शंकराचार्य माया के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। माया अज्ञान रूप है। प्रकृति रूप है किन्तु सांख्य की प्रकृति की तरह स्वतन्त्र नहीं है। उन्होंने अज्ञानता के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार न करके एक तरह से जनता जनार्दन को ज्ञान की आराधना पर बल दिया था। माया का शाब्दिक अर्थ करते हुए उन्होंने कहा था 'मा' अर्थात् जो नहीं है 'या' अर्थात् उसे उस रूप में प्रतिपादित कर देना। रस्सी को देख कर सर्प का आभास होना यह माया है ، अविद्या है ، अज्ञानता है। शंकर के अनुसार माया की दो शक्तियां है। ब्रह्मसूत्र शांकरभाष्य उनकी अमर कृति है। जिसमें वे लिखते हैं कि माया अपने आवरण शक्ति के द्वारा रस्सी के स्वरूप को ढक लेती है और विक्षेप शक्ति सर्प का आरोपण कर देती है। यह आरोपण है، बदलाव नहीं। रस्सी सर्प का रूप नहीं लेती है अपितु सर्प का आभास कराती है। शंकर के शब्दों में यह विवर्त है، परिणाम नहीं। ज्ञान से यह अज्ञान रुपी विवर्त का निराकरण हो जाता है।
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