समाज व्यक्तियों से गठित होता है، समाज से व्यक्ति नहीं गठित होता और जो समाज के अनुरूप गठित होने पर विवश हो क्षेत्र में कर भी क्या सकेगा؟ दीक्षा और साधना तो विपरीत क्रम में चलने की क्रिया है। न केवल सामाजिक मान्यताओं के विपरीत क्रम में वरन् जो दुख ، दैन्य ، अभाव ، दारिद्रय ، भाग्यहीनता व तनाव किन्हीं कारणवश स्वयं की भाग्यलिपी में अंकित हो गया हो ، उसके भी विपरीत क्रम में चलने का। दीक्षा तो जीवन के नवनिर्माण की क्रिया ही होती है। जिसको साधक स्वयं साक्षात् कर सकता है।
जीवन की सफलता इसी में है कि हम सामान्य मनुष्य होकर भी उस ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझें ، अन्य लोकों की यात्रा कर उसके रहस्यों को समझें ، और यह सब कुछ संभव है ، कुछ विशेष दीक्षाओं के माध्यम से ।अखिल ब्रह्माण्ड की सृजनकर्त्ती होने के उपरांत भी देवी का मूलस्वरूप कौमार्ययुक्त ही माना गया है। . मुक्त होते हैं، अपने आप में सम्पूर्ण होते है، क्योंकि सम्पूर्ण की आराधना का स्वाभाविक प्रतिफल एक सम्पूर्णता की प्राप्ति ही तो होगी। . ।
उचित साधना पद्धति का चयन करके ، अपने जीवन की आवश्यकताओं और प्राथमिकताओं का निर्णय करके उचित माध्यम तथा उपाय के द्वारा युग को स्वर्ण युग बनाने की चेष्टा में रत हों। अपने जीवन के विविध द्वन्द्व ، वृथा ، मोह ، तनावों को समाप्त कर आत्मरूपेण परिपूर्ण हो सकें।
महादेवोहऽम्कामाख्या शक्ति दीक्षा तो जीवन का सौभाग्य है जिसको प्राप्त कर साधक अपने जीवन को आनन्दप्रद ، ममत्व ، स्नेह ، धन ، ऐश्वर्य ، भोग ، विलास ، सौभाग्य समस्त सिद्धियों से युक्त होकर महादेवोहऽम् और कामाख्या शक्ति से हो सकेगा और शत्रु बाधा ، अभाव ، कष्ट ، पीड़ा ، तनाव ، चिन्ताओं से विर्निमुक्त हो जाता है और पूर्ण रूपेण कामाख्या शक्ति रूप में पूर्ण शुद्ध ، पवित्र व चेतन्य स्वरूप में जीवन निर्माण की ओर अग्रसर होता है।
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