भगवान शिव की उपासना करना विश्व का सर्वाधिक प्राचीनतम कृत्य है और यदि शिव उपासना शाम्भवी विद्या द्वारा की जाय ، तो वह अत्यन्तम फलप्रदायक होती हैं। इसके महत्व का आभास एक बात से ही हो जाता है ، कि यदि शाम्भवी विद्या किसी को ज्ञात है ، तो उसके स्पर्श से प्राणी इक्कीस कुलों के साथ मुक्ति प्राप्त कर लेता है।
यह दीक्षा गुरू के प्राणों से साधनाओं के मंथन की क्रिया होती है، एक प्रकार से देखा जाये तो विशिष्ट साधनाओं की चेतना और ऊर्जा का प्राणों से सम्बन्ध सहचर्य बनता है ، उसे 'शांभवी' कहा जाता है। . ، उसके पूरे शरीर में थिरकन प्रारम्भ हो जाती है प्राणों में चेतना और हलचल उठने लगती है उसे ऐसा अनुभव होने लगता कि संसार की सिद्धियां उसके और शरीर में समाहित हो रही हैं ، उसके चेहरे की रौनक बढ़ जाती है गंभीरता आ जाती है ، उसके नेत्रें में एक अग्नि स्फुलिंग पैदा हो जाती है ، जिसके माध्यम से वह समस्त संसार को अपने नियंत्रण में लेने की सामर्थय रखता है।
. प्राण से एकाकार होकर सही अर्थो में वह गुरूमय हो जाता है।
. सौभाग्य प्राप्त होता है और जो अपने जीवन में भगवान शिव की शक्ति और शांम्भवी की कृपा इस दीक्षा के माध्यम आत्मसात करता है वह विशिष्ट व्यक्तित्व बन जाता है।
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